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मानवभव
चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणि य जन्तुणो । माणुसत्तं सुई सद्धा
संजमम्मि य वीरियं ।। [मनुष्यभव, श्रुति, श्रद्धा और संयम में पराक्रम- ये चारों अंग (गुण) प्राणियों में अत्यन्त दुर्लभ हैं ।]
यहाँ प्रभु महावीर ने जिन चार गुणों को दुर्लभ बताया हैं, उनमें पहला है- मानवभव । आज इसी पर थोड़ा विचार करें ।
चौरासी लाख जीवयोनियों में भटकते हुए प्राणी को बड़ी मुश्किलसे मनुष्य-भव प्राप्त होता है; परन्तु हर वह प्राणी, जिसे मनुष्य शरीर प्राप्त हुआ है, मानव कहलाने का अधिकारी नहीं है । सच्चा मानव वही है, जिसमें मानवता हो- मानवोचित सद्गुणों का निवास हो । सद्गुणों से रहित मानवशरीर वैसा ही दिखाई देता है, जैसा जलरहित (सूखा) कोई सरोवर !
दीवार चुननेवाला मजदूर उपर उठता है और कुआ खोदनेवाला नीचे जाता है । श्रम तो दोनों करते हैं; फिर भी परिणाम भिन्न भिन्न हैं । ऐसा क्यों ? दीवार चुनने का काम कठित है- उसमे बुद्धि का अधिक उपयोग करना पड़ता है। इससे विपरीत खड्डा खोदने का काम सरल हैं । इसीलिए एक प्रकाश की ओर- आकाश की दिशा में बढ़ता है और दूसरा अन्धकार की ओर-नरक की दिशा में ।
ठीक इसी प्रकार मन-वचन-काया का दुरुपयोग करने वाला दानवता की दिशा में बढ़ता है और उनका सदुपयोग करने वाला मानवभवकी ।
संसार में रहकर भी जल में कमल की तरह साधु निर्लिप्त रहता है । कछुए के समान अपनी इन्द्रियों को संकुचित करता है । विषय-कषायों से अपने मन को दूषित नहीं करता । सब जीवों के कल्याण की कामना करता है।
विद्वान् भी दुर्जन हो तो उससे दूर रहने की सलाह नीतिकार देते
दुर्जनःपरिहर्त्तव्यो विद्ययाऽलङक़तोऽपि सन्
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