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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मानवभव चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणि य जन्तुणो । माणुसत्तं सुई सद्धा संजमम्मि य वीरियं ।। [मनुष्यभव, श्रुति, श्रद्धा और संयम में पराक्रम- ये चारों अंग (गुण) प्राणियों में अत्यन्त दुर्लभ हैं ।] यहाँ प्रभु महावीर ने जिन चार गुणों को दुर्लभ बताया हैं, उनमें पहला है- मानवभव । आज इसी पर थोड़ा विचार करें । चौरासी लाख जीवयोनियों में भटकते हुए प्राणी को बड़ी मुश्किलसे मनुष्य-भव प्राप्त होता है; परन्तु हर वह प्राणी, जिसे मनुष्य शरीर प्राप्त हुआ है, मानव कहलाने का अधिकारी नहीं है । सच्चा मानव वही है, जिसमें मानवता हो- मानवोचित सद्गुणों का निवास हो । सद्गुणों से रहित मानवशरीर वैसा ही दिखाई देता है, जैसा जलरहित (सूखा) कोई सरोवर ! दीवार चुननेवाला मजदूर उपर उठता है और कुआ खोदनेवाला नीचे जाता है । श्रम तो दोनों करते हैं; फिर भी परिणाम भिन्न भिन्न हैं । ऐसा क्यों ? दीवार चुनने का काम कठित है- उसमे बुद्धि का अधिक उपयोग करना पड़ता है। इससे विपरीत खड्डा खोदने का काम सरल हैं । इसीलिए एक प्रकाश की ओर- आकाश की दिशा में बढ़ता है और दूसरा अन्धकार की ओर-नरक की दिशा में । ठीक इसी प्रकार मन-वचन-काया का दुरुपयोग करने वाला दानवता की दिशा में बढ़ता है और उनका सदुपयोग करने वाला मानवभवकी । संसार में रहकर भी जल में कमल की तरह साधु निर्लिप्त रहता है । कछुए के समान अपनी इन्द्रियों को संकुचित करता है । विषय-कषायों से अपने मन को दूषित नहीं करता । सब जीवों के कल्याण की कामना करता है। विद्वान् भी दुर्जन हो तो उससे दूर रहने की सलाह नीतिकार देते दुर्जनःपरिहर्त्तव्यो विद्ययाऽलङक़तोऽपि सन् For Private And Personal Use Only
SR No.008731
Book TitlePratibodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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