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बताया :- "मेरा अनुभव मेरे साथ है; इसलिए सभी वर्तमान सेनापति मेरी सलाह लेने आते हैं। पहले साधारण सेनिक मेरे समीप आने की हिम्मत नहीं करता था । उच्च पद के कारण मुझसे डरता था; परन्तु अब सभी सेनिक समय समय पर आवश्यक सलाह लेने के लिए निस्संकोच और निर्भय होकर मेरे पास चले आते हैं । मेरे प्रति सम्मान में कोई कमी नहीं आई है । यही मेरी प्रसन्नता का रहस्य है ।"
सिकन्दर :- “फिर भी उच्च पद छूट जाने से कुछ दु:ख तो आपको होता ही होगा न ?" । सेनापति :- “जी नहीं, मुझे कोई दुःख नहीं है । वेतन तो हाथ का मेल है । अधिक मिलेगा, अधिक खर्च होगा । कम मिलेगा, कम खर्च होगा । पद पर रहकर भी जो आदमी रिश्वत लेता है- अपने स्वार्थ क लिए लोगों को परेशान करता है - कर्तव्य का निर्वाह नहीं करता, उसे सम्मान नहीं मिल सकता । सम्मान की प्राप्ति के लिए पद नहीं, मानवता आवश्यक है ।"
इस उत्तर से सन्तुष्ट होकर सिकन्दर ने उसे फिर से सेनापति पद पर नियुक्त कर दिया ।
सेनापति ने मानवता के महत्त्व को समझा था और उसे आत्मसात् किया था; इसीलिए वह ऊंची-नीची हर स्थिति में हँसमुख रहता था । __ जिसमें मानवता होती है, वह गुस्सा नहीं करता । यदि गुस्सा आ भी जाय तो वह किसी का बुरा नहीं सोचता । यदि कोई बुरा विचार उठ भी आय तो उसे मुंहपर नहीं लाता (बुरी बात मुंह से बोलता नहीं) और यदि असावधानी वश बुरी बात मुंह से कभी निकल जाय तो जित होकर सिर झुका लेता है । यह भाव इस प्राकृत भाषा में रचित आर्या छन्दमें किसी ने बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रकट कर दिया है । देखिये :
"सुयणो न कुप्पइव्विअ अह कुप्पइ विप्पियं न चिन्तेई । अह चिन्तेइ न जम्पइ अह जम्पइ लजिओ हवइ ।।"
जिसमें विद्या होती है, उसमें मानवता भी होगी ही ऐसा निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता । किसी शायर ने कहा है :
१आदमीयत और शै है 3 इल्म है कुछ और चीज ।
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