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"मन करा रे प्रसन्न
र्वसिद्धीचे साधन ।।" (सब सिद्धियों के साधन मन को प्रसन्न रखिये) जेन योगी श्री आनन्दघनजी ने एक बार गाया था :
"चित्त प्रसन्ने रे पूजनफल कयूँ रे
पूजा अखण्डित एह ॥" उनक अनुसार चितकी प्रसन्नता ही प्रभूकी अखण्ड पूजा है !
जो व्यक्ति हँसमुख होता है, वह सदा अनेक मित्रों से घिरा रहता है; क्योंकि प्रसन्नता में चुम्बक की तरह आकर्षण होता है । इससे विपरीत जो व्यक्ति उदास रहता है- दूसरों के सामने अपना दुखड़ा ही सुनाया करता है- रोया करता है, उसके मित्रा धीरे-धीरे कम होते जाते हैं और एक दिन ऐसा आता हैं कि वह अकेला रह जाता है । __अब केवल यह सोचना है कि मन प्रसन्न कैसे रखा जाय, विकारों से उसे कैसे बचाया जाय और सद्विचारों से उसे कैसे भरा जाय ।
दुनिया का जितना नुकशान एटमबमों से हुआ है, उससे अधिक घटिया फिल्मों से हुआ है - फिल्मी गीतों से हुआ है; क्योंकि इनसे मन विकृत होता है- विषयों और कषायों से लिप्त होता है। यही बात बाजारु उपन्यासों के लिए कही जा सकती है । इन सबसे अपनें आपको दूर रखना है ।
एक सीढी से मनुष्य ऊपर भी चढ़ सकता है और नीचे भी उतर सकता है । मन के द्वारा आप उन्नति भी पा सकते हैं और अवनति भी । मन से सर्जन भी होता है और विसर्जन भी ठीक ही कहा गया है :
"मन एव मनुष्याणाम्
कारणं बन्धमोक्षयोः ।।" (मन ही मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का कारण है )
प्रतिकूल परिस्थिति यों में भी विचारक मन निर्मल बना रहता है । महाराज श्रेणिक ने जेल में भी विशुद्ध विचारों के द्वारा कर्म-निर्जरा की थी । अनुकल स्थितियों में जीने की और प्रतिकूल स्थितियों में मरने की इच्छा तो सभी करते हैं; परन्तु जिसका मन निर्मल होता है, वह न दु:ख में घबराता है और न सुख में घमण्ड करता है । वह तो सुख-दु:ख से ऊपर उठकर निजानन्द में रमण करता है, वीतराग का स्मरण करता है ।
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