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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "मन करा रे प्रसन्न र्वसिद्धीचे साधन ।।" (सब सिद्धियों के साधन मन को प्रसन्न रखिये) जेन योगी श्री आनन्दघनजी ने एक बार गाया था : "चित्त प्रसन्ने रे पूजनफल कयूँ रे पूजा अखण्डित एह ॥" उनक अनुसार चितकी प्रसन्नता ही प्रभूकी अखण्ड पूजा है ! जो व्यक्ति हँसमुख होता है, वह सदा अनेक मित्रों से घिरा रहता है; क्योंकि प्रसन्नता में चुम्बक की तरह आकर्षण होता है । इससे विपरीत जो व्यक्ति उदास रहता है- दूसरों के सामने अपना दुखड़ा ही सुनाया करता है- रोया करता है, उसके मित्रा धीरे-धीरे कम होते जाते हैं और एक दिन ऐसा आता हैं कि वह अकेला रह जाता है । __अब केवल यह सोचना है कि मन प्रसन्न कैसे रखा जाय, विकारों से उसे कैसे बचाया जाय और सद्विचारों से उसे कैसे भरा जाय । दुनिया का जितना नुकशान एटमबमों से हुआ है, उससे अधिक घटिया फिल्मों से हुआ है - फिल्मी गीतों से हुआ है; क्योंकि इनसे मन विकृत होता है- विषयों और कषायों से लिप्त होता है। यही बात बाजारु उपन्यासों के लिए कही जा सकती है । इन सबसे अपनें आपको दूर रखना है । एक सीढी से मनुष्य ऊपर भी चढ़ सकता है और नीचे भी उतर सकता है । मन के द्वारा आप उन्नति भी पा सकते हैं और अवनति भी । मन से सर्जन भी होता है और विसर्जन भी ठीक ही कहा गया है : "मन एव मनुष्याणाम् कारणं बन्धमोक्षयोः ।।" (मन ही मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का कारण है ) प्रतिकूल परिस्थिति यों में भी विचारक मन निर्मल बना रहता है । महाराज श्रेणिक ने जेल में भी विशुद्ध विचारों के द्वारा कर्म-निर्जरा की थी । अनुकल स्थितियों में जीने की और प्रतिकूल स्थितियों में मरने की इच्छा तो सभी करते हैं; परन्तु जिसका मन निर्मल होता है, वह न दु:ख में घबराता है और न सुख में घमण्ड करता है । वह तो सुख-दु:ख से ऊपर उठकर निजानन्द में रमण करता है, वीतराग का स्मरण करता है । For Private And Personal Use Only
SR No.008731
Book TitlePratibodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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