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स्वास्थ्य हिन्दी में एक कहावत बहुत प्रसिद्ध है :
"पहला सुख निरोगी काया"
शरीर रोगों से रहित हो - स्वस्थ हो, यह सबसे बड़ा सुख है । स्वस्थ शरीर से ही समस्त कार्य सम्पन्न होते हैं । जैसा कि महाकवि कालिदास ने कहा हैं :
"शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ।।" (निश्चय ही धर्म का पहला साधन शरीर है ।)
धर्म का आचरण शरीर से ही होता है । जिसका शरीर अस्वस्थ है, वह दूसरों की सेवा नहीं कर सकता । रोगियों का इलाज वही वैद्य कर सकता है, जो स्वयं स्वस्थ हो । स्वस्थ व्यक्ति स्वयं भी प्रसन्न रहा है और दूसरों की भी प्रसन्नता बढाता है ।
एक पाश्चात्य विचारक बीचर ने कहा है :- “शरीर वीणा है, आनन्द संगीत; परन्तु वीणा दुरुस्त हो- यह सब से पहले जरुरी है ।"
वीणा का एक भी तार ढीला हो तो उससे अच्छे संगीत क योग्य उत्तम स्वर नहीं निकल सकते; उसी प्रकार शरीर में कहीं भी कुछ उपद्रव हो- रोग हो तो हम प्रसन्न नहीं रह सकते ।।
भव्य भवन हो, बहुमूल्य फर्नीचर हो, भरा-पूरा परिवार हो, सुशीला पत्नी हो, आज्ञाकारी पुत्र हो, आधुनिकतम भोगोपभोग की सामग्री हो, स्वादिष्ट खाद्य और पेय पदार्थ मौजूद हों; परन्तु अपने शरीर में यदि एक सौ चार डिग्री बुखार भी मौजूद हो तो सोचिये, क्या होगा? हमें कुछ भी नहीं सुहायगा । यही कारण है कि सभी विचारकों ने शारीरिक स्वास्थ्य पर जोर दिया है । करोड़ो रुपयों से भी स्वास्थ्य को अधिक मूल्यवान् माना है ।
रीरिक स्वास्थ्य से भी पहले मानसिक स्वास्थ्य आवश्यक है; क्योंकि यदि तन तन्दुरस्त न हो तो मन तन्दुरुस्त नहीं रह सकता ।
मन मनन करता है, विचार करता है, शरीरको संचालित करता है । पंच महाभूतों से बना हुआ शरीर तो मनकी आज्ञा का पालन करता है । मन यदि दुःखी हो तो शरीर भी अस्वस्थ हो जाता है । सन्त तुकाराम ने वर्षो पहले कहा था :
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