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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरिभद्र नामक एक विद्वान ब्राह्मण थे । एक दिन वह कारणवश किसी जिनमन्दिर में चले गएँ । वहाँ महावीर प्रभुकी प्रतिमा को देखकर व्यंग्यपूर्वक हरिभद्र बोल उठे : "वपुरेव तवाचष्टे स्पष्टं मिष्टान्नभोजनम् । नहि कोटरसस्थेऽग्नौ तरुर्भवतिशाद्ल: ।।" है भगवन ! आपका शरीर ही कह रहा है कि आप मिठाई खाते रहे हैं - यह सपा है; क्योंकि यदि कोडर में आग लगी हो (पेट भूखा हो) ता पड़ हराभरा नहीं रह सकता ।) थोड समय बाद वह याकिनी महत्तरा नाम की साध्वी के संपर्क में आएं। उन्होंने उसे आचार्य महाराज के पास भेजा। उनसे हरिभद्र ने बोध पाया और धीरे-धीरे संसार से विरक्ति होने पर प्रव्रज्या ले ली । अपने गुरुदेव से जैन शास्त्रों का मननपूर्वक अध्ययन किया । ग्रामानग्राम विहार करते हुए हरिभद्र मुनि वर्षो बाद जब उसी नगर में पधारे और उन्होंने उसी मन्दिर में प्रतिमा के दर्शन किये, तब बोले. - “वपुरेव तवाचष्टे भगवन् ! वीतरागताम् । नहि कोटरसंस्थेऽग्नौ तरुर्भवति शाद्वल:।।" (हे भगवन ! आपका (यह हृष्टपुष्ट) शरीर ही आपकी वीतरागता को प्रकट कर रहा हैं: क्योंकि जिस पेड़ के खोंडर में आग हो वह हराभरा नहीं रह सकता । मन में यदि राग की आग लगी हो तो शरीर भला केस पुष्ट होगा ? यही पनि हरिभद्र आगे चलकर जैनाचार्य श्री हरिभद्रसूरि के नाम से विख्यात हए और उन्होंने एक हजार चार सौ चवालीस (१९४४) ग्रन्थों की रचना की। राग, ममता, माह, आसक्ति, वासना आदि मन क विकारों को दूर करन की प्रेरणा हम इस घटना से लेनी है । For Private And Personal Use Only
SR No.008731
Book TitlePratibodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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