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“मैत्री प्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनयेषु ।
- तत्त्वार्थसूत्रम् ७/६ मैत्री प्रत्येक सत्त्व (प्राणि) के साथ होनी चाहिए । अन्त: करण से निरन्तर “मित्ती मे सव्वभूएसु” (मेरी समस्त प्राणियों से मित्राता है) ऐसी ध्वनि निकलती रहनी चाहिए । इससे हमारा व्यवहार अहिंसामय प्रेममय बनेगा ।
प्रमोद (हर्ष) अपने से अधिक गुणियों के प्रति होना चाहिए । साधारणत: लोग अपने से ऊंचे लोगों को देखकर ईर्ष्या की आग में जलने लगते हैं । इससे वे स्वयं अपना ही नुकसान करते हैं । स्पर्धा (होड़) अच्छी होती है, ईर्ष्या बुरी । स्पर्धा में अपने आपको विकसित करक दूसरों के बराबर पहुँचने या उनसे आगे बढ़ने की भावना होती है; परन्तु ईर्ष्या में दूसरों को गिराने की दुर्भावना रहती है जिसके अन्त:करण में प्रमाद होता है, वह अपने से अधिक गुणवानों का आदर करता है - उनसे मिलकर प्रसन्न होता है ।
कारुण्य भाव दु:खियों के प्रति होना चाहिए । किसी को पीड़ा पाते देखकर हृदय काँप जाना चाहिए । यही अनुकम्पा है - दया है, जो धर्म का मूल है :
“दया धर्म का मूल है। पाप मूल अभिमान । "तुलसी दया न छोडिये, जब लग घटमें प्राण ॥"
बड़े-बड़े महात्माओं को करुणासागर कहा जाता है; क्योंकि कारुण्यभाव ने ही उनकी आत्मा को ऊपर उठाया है- महान् बनाया है ।
चौथा भाव है- माध्यस्थ अथवा तटस्थता । यह अविनेय (अपात्र या अयोग्य) शिष्यों के प्रति रखने योग्य भाव है । जो उपदेश से नहीं सुधरता, वह धीरे-धीरे दुनिया मे कटुतर अनुभव पाकर अपने आप सुधर जाता है; अत: उसके प्रति उपेक्षावृत्ति रखी जानी चाहिये ।
कषायरहित निर्मल मन में इन चार भावों के विकसित होने पर व्यक्ति अमृतसरोवर में डुबकी लगाने लगता है । मृत्यु का भय उससे बिदा हो जाता है । वह गाने लगता है :
“अब हम अमर भये, न मरेंगे !"
जिसका मन निर्मल होता है, उसका तन भी स्वस्थ होता है । एक प्राचीन घटना के द्वारा इस बात की पुष्टि होती है ।
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