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दूसर ने कहा- “हम धन कमाने के लिए ही अपने गाँव से निकले थे । भाग्य से आज ही यह ईट मिल गई। अत: हमारा मनोरथ पूर्ण हो गया गया है । अब हमें अपने गाँव को लौट चलना चाहिये । गाँव में पहुँच कर हम आधी-आधी ईंट दोनों ले लेंगे"।
प्रस्ताव स्वीकत हो गया। दोनों अपने गाँव की ओर खाना हुए । मार्ग में एक दूसरा गाँव आया । उसके बाहर एक सघन वृक्ष की छाया में दोनों ठहर गयें । भूख लगी । एक मित्र दूसरे पर ईंट की सुरक्षा का भार डालकर उस गाँव में भोजनसामग्री लेने पहुँचा । वहीं उसके मन में विचार आया कि मिठाई में यदि थोड़ा-सा जहर मिला दूँ तो उसे खाते ही वह मर जायेगा और सोने की पूरी ईट मुझे मिल जायेगी । उसने वैसा ही किया । सामग्री लेकर उस वृक्ष के समीप लौट आया ।
अब जल की जरुरत थी । मित्रा ने कहा- “तुम खाना शुरु करो । में अभी पास क कँए से लोट में जल भर लाता हूँ।"
ऐसा कहते ही वह मित्र जल भरकर लाने के बहाने लोटा-डोर उठाकर कूँए की ओर चल पड़ा ।
उधर वृक्ष क पास बैठे मित्रा के भी मन में पाप आ गया । उसने सोचा कि यदि में उस कुँए में ही मित्रा को धकल दूं तो पूरी ईंट पर मेरा अधिकार हो जायेगा । फलस्वरुप वह ईंट वहीं छोड़कर उठा और भागता हुआ कुँए पर जा पहुँचा । बोला :- “मित्र ! तुम भोजन-सामग्री लेकर आये और तत्काल पानी लेने चले गये ? तुम्हें तो आराम की जरुरत है । लाओ, पानी में खींच दूं ।”
ऐसा कहते हुए उसे 1ए में धक्का देकर गिरा दिया । लौटकर मिठाई खाई तो जहर के प्रभाव से वह खुद भी चल बसा । थोड़ी देर बाद जब फकीर लौटकर उसी रास्ते से गुजरा और उसने पेड़ के नीचे का दृश्य देखा तो सहसा बोल उठा :- "सचमुच यह ईंट मानवमारक है !" फकीर फिर वहाँ से भाग खड़ा हुआ ।
अपनी सन्तान के लिए धन का संग्रह करते समय मनुष्य ऐसा नहीं सोच पाता, जैसा एक कवि ने कहा हैं :
“पूत सपूत तो का धन संचय ? पूत कपूत तो का धन संचय ?"
यदि पत्रा सपुत्रा है तो वह स्वयं कमा लेगा और कुपुत्रा है तो संचित धन को भी उड़ा देगा- दोनों दशाओं में धन का संचय व्यर्थ है ।
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