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धर्म का स्थान
चरम तीर्थंकर प्रभु महावीर स्वामी के अनुसार कर्म बांधते समय जीव विचार नहीं करता; इसीलिए वह विकार का शिकार बन जाता है ।
जीवनभर वह परिग्रह के पीछे पडा रहता है । धन प्राप्त करने के लिए वह कोई भी दुष्कृत करने में नहीं हिचकिचाता । वृद्धावस्था भी उसमें बाधक नहीं बनती । शरीर शिथिल होने पर भी तृष्णा शिथिल नहीं होती । बाल सफेद होने पर भी मन काला बना रहता है । दाँत गिर जाने पर भी लोभ उठता रहता है । कितनी विचित्र बात है ?
राजा कुमारपाल ने किसी चूह की स्वर्णमुद्राएं उठा ली थी तो वह सिर फोड़ कर मर गया था. इससे पता लगता है कि तिर्यञ्च गति में भी तृष्णा अपना दुष्प्रभाव दिखाती है; फिर मनष्य गति की तो बात ही क्या ?
सुना था कि एक आदमी क पाँच सौ रुपये किसी ने चरा लिये । इससे वह इतना अधिक दु:खी हुआ कि दु:ख से मुक्त होने के लिए अपने शरीर पर घासलेट छिड़ककर उसने आत्मा हत्या कर ली ! शंकराचार्यने लिखा है :
"अर्थमनर्थ भावय नित्यम् नास्ति तत: सुखलेश: सत्यम्'
अर्थ (धन) को हमेशा अनर्थ (अनिष्ट) सपझो । सचमव उस में जरा भी सुख नहीं हैं । एक दृष्टान्त द्वारा यह बात और भी अधिक स्पष्ट हो जायेगी :
एक फकीर सामने से भागता हुआ चला आ रहा था । दा मित्रों ने उसे रोक कर भागने का कारण पूछा । फकीर ने कहा :- “ममार्ग में अमुक वृक्ष के नीचे मानवमारक को देखा था । उससे बचने के ही लिए में भागकर चला आ रहा हूँ।"
फकीर चला गया । मित्र आगे बढ़े । उस वृक्ष क नीचे पहुँचकर उन्होंन सोने की एक ईंट दरखी । फिर एक ने दूसरे से कहा कि वह फकीर हमें डरा कर दूसरी दिशा में भेजना चाहता था, जिसस यह ईट हम न मिल जाय और वह स्वयं ही लौटते समय इस आपने साथ ले जा संक; पन्त अब उसकी योजना असफल हो गई है । १०
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