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पुत्रा ही क्यों ? सारे कुटुम्बी लोग अपनी कायारुप कम्पनी के शेयरहोल्डर्स हैं । काया से उत्पन्न धन का लाभ तो सब उठाते हैं; परन्तु सजा अंकले शेठ आत्माराम को भोगनी पड़ती है । डाक रत्नाकर को जब महर्षियों क द्वारा यह बात समझ में आ गई तब हत्या, लूटपाट आदि छोड़कर वह तपस्या में लीन हो गया और महर्षि वाल्मीकि क नाम से विख्यात हुआ ।
अनेक कष्ट सह कर प्राप्त धन का उपयोग मनुष्य कामभोग में करता हैं । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- ये चार पुरुषार्थ हैं । इनमें अर्थ-काम की एक जोडी है और धर्म-मोक्ष की दूसरी । पहली जोडी जीव को संसार में भटकाती है और दूसरी उससे मुक्त करती है । निन्यानव प्रतिशत संसारी जीव पहली जोडी के ही चक्कर में पड़े रहते हैं । उस चक्कर से ऊपर नहीं उठ पाते ।
संसार का मार्ग प्रेयोमार्ग है और मुक्ति का मार्ग श्रेयोमार्ग । जिनक विवेकलोचन बन्द रहते हैं, वे अदूरदर्शी प्राणी प्रयोमार्ग पर ही दौड़त रहा
करते हैं ।
अर्थ के प्रति अरुचि हो जाय तो उसे परोपकार में लगा सकते हैं; परन्तु काम के प्रति अरुचि सहज नहीं होती । वर्षों तक काम अपनी ओर प्राणियों को आकर्षित करता रहता है । तपस्या के कारण शान्त दिखाई देनेवाला काम भी कब विराट रुप धारण कर लेगा ? इसका कोई भरोसा नहीं । ____पर्वत की एकान्त कन्दरा में बैठे हुए घोर तपस्वी रथनमी की दृष्टि ज्यों ही राजुल नामक निर्वसना साध्वी पर पडी, त्यों ही उनके मन में कामाग्नि प्रज्वलित हो गई । गिड़गिड़ाकर वे उस साध्वी से भोगयाचना करने लगें । __ अखण्ड शीलव्रतधारिणी महासती राजुल ने प्रतिबोध देते हुए कहा :"हे मुनिराज ! राज्य क साथ ही आपने समस्त काम-भोगों का भी त्याग कर दिया था । कोई दाता कभी दत्त वस्तु को दुबारा ग्रहण करना नहीं चाहता । व्यक्त वस्तु को पन: प्राप्त करने की इच्छा तो वमन की चाह के सामने अवांछनीय - निन्दनीय है । आप जैसे धर्मात्मा तपस्वी को ऐसा निन्दनीय कार्य शोभा नहीं देता ।"
इससे उनकी कामाग्नि शांत हो गई और यथोचित प्रायश्चित लेकर वे पुन: तपस्या में लीन हो गये
वह काम ही था, जिसने महर्षि विश्वामित्र जैसे तपस्वी को उर्वशी पर मोहित करके निस्तेज बना दिया था ।
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