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फल यह हुआ कि अपने गुणों से ख्याति अर्जित करने के लिए बारह वर्ष आठ दिन के बाद निश्चित रूपसे लौट आने का वचन माता और पत्नी को देकर श्रीपालजी चल पड़े ।
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वचन के ही अनुसार एक वर्ष और सात दिन की अवधि पूरी होने पर रात को गुप्तरूप से राजमहल में पहुँचकर श्रीपाल अपनी माता और मैना को नगरी से बाहर ले गये । वहाँ अपने डेरे पर ले जाकर उन्होंने अपना संपूर्ण वृत्तान्त संक्षेप में दोनों को इस प्रकार सुनाया :
" जंगल में भ्रमण करते हुए, एक विद्याधर की विद्यासिद्धि मं सहायक बनने के कारण प्रसन्न होकर मुझे उसने दो विद्याएँ सिखा दी- जलतारिणी और शस्त्रतारिणी ।
आगे बढ़ने पर एक योगी को मेरी उपस्थिति से स्वर्णसिद्धि में सहायता मिल गई । उसने भी अत्यन्त आग्रह के साथ मुझे थोड़ासा स्वर्ण भेंट किया ।
वहाँ से चलकर भड़ौच नगर के बाहर एक उद्यान में विश्राम करने बैठा तो मुझे नींद आ गई। लोगों का शोरगुल सुनकर मैंने आँख खाली तो अपने को सैनिकों से घिरा पाया। पूछने पर पता चला कि धवल सेठ के अटके हुए पाँच सौ जहाजों को चलाने के लिए वे मेरी बलि देना चाहते हैं । मैंने सेठजी के पास पहुँच कर कहा कि किसी पुरुष की हत्या से न कभी कोई जहाज चला है और न चलेगा । यह एक भयंकर अन्धविश्वास है । मैं बिना हत्या किये ही आपके सारे जहाज चला सकता हूँ ।
फिर नवपद का स्मरण करते हुए मैंने एक-एक जहाज को छुआ कि वह तत्काल चल पड़ा। सेठजी के साथ जहाज में दूर-दूर तक पर्यटन का अवसर मिलेगा ऐसा सोचकर सौ स्वर्ण मुद्राएँ प्रतिमास के किराये पर जहाज में मैंने स्थान ले लिया । इस प्रकार मेरी सामुद्री यात्रा प्रारंभ हुई ।
बर्बरदेश में पहुँचे । वहाँ महसूल न चुकाने पर अपराध में धवलसेठ पकड़ा गया । सेठजी को नीतिकारों का यह वाक्य याद आ गया
"सर्वनाशे समुत्पन्ने
अर्ध त्यजति पण्डितः ।। "
( सर्वनाश के अवसर पर जो आधे का त्याग कर देता है, वह पंडित है )
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बोले
“ श्रीपालजी ! कृपा करके मुझे छुड़ा लीजिये । माल से भरी हुई आधी जहाजें मैं आपको भेंट कर दूँगा ।"
मैंने शस्त्रनिवारिणी विद्या का उपयोग करके युद्ध में महाकाल की
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