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• कर्त्तव्य. थे। कड़ककर उन्होंने कहा :- “तुम्हें हमारे साथ चलना ही होगा, अन्यथा डंडोसे ऐसी धुलाई करेंगे कि तुम्हारे शरीर की सारी हड्डियाँ तड़ाक-तड़ाक़ टूट जायँगी!"
दुकानदारने सोचा कि मेरी सहानुभूति का इन्हों ने कोई मूल्यांकन ही नहीं किया। उल्टे मुझे धौंस दे रहे हैं। इन्हे दूसरों की सुविधा-असुविधा का कोई विचार ही नहीं आ रहा है। केवल अपना स्वार्थ सूझ रहा है; अतः इनसे पिण्ड छुड़वाना चाहिये। बोला :"अच्छा, मैं चलता हूँ; परन्तु पहले आप यह तो बताइये कि क्या आप जिसे खोज रहे हैं, वह घोड़ा सफेद था ?"
सिपाही :- "हाँ, हाँ सफेद ही था।" दूकानदार :- और उसके सिर पर दो लम्बे-लम्बे सींग भी थे?
सिपाहीः- “सींग? अरे मूर्ख! घोड़े के कभी सींग नहीं होते। तूने जरूर कोई बैल देख लिया होगा!"
यह कहते हुए सिपाही आगे बढ़ गये। दूकानदारने राहत की साँस ली। इस प्रकार स्वार्थ की रक्षाके लिए बुद्धिमत्ता का उपयोग किया। अत्याचारियों को उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा किया।
जो व्यक्ति स्वार्थ (स्व+अर्थ आत्मकल्याण) सिद्ध करना चाहता हो, उसे अपनी दृष्टि निर्मल रखनी पड़ेगी। उसकी दृष्टि अपने दोष देखेगी और दूसरों के गुण।
द्वारका नगरी की बात है। एक सड़क पर मरा हुआ कुत्ता पड़ा था। पांडवों के साथ श्रीकृष्ण उधर से निकले । कुत्ते का शरीर सड़ गया था। उसमें कीड़े बिल-बिला रहे थे। ऐसी दुर्गन्ध उसमें से निकल रही थी कि पाण्डवों को रूमाल से अपनी नाक बन्द करके आगे बढ़ना पड़ा; परन्तु श्रीकृष्ण कुत्ते के पास ही कुछ देर खड़े रहे और फिर प्रसन्न होकर आगे बढ़े।
पाण्डवों ने प्रसन्नता का जब कारण पूछा तो बोले :
“मैं तो कुत्ते के दाँत देख रहा था। कितने उज्ज्वल! कैसे चमकीले! मानो मोती के दाने हों। दुर्गन्ध की ओर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया।"
जो कुछ दुनियामें दिखाई देता है, उसे अपने अनुकूल मानकर प्रसन्न रहना बुद्धिमत्ता का कार्य है और प्रतिकूल मानकर रोना मूर्खता का!
निर्मल और विमल दोनों भाई थे। बगीचे में घूम रहे थे। थोड़ी ही देर बाद निर्मल रोता हुआ घर पहुँचा। उसकी माँ कमला देवीने पूछा :- “क्या पाँव में काँटा चुभ गया है बेटे!"
निर्मल :- “नहीं माँ!"
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