________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
•कर्तव्य. सौर का अर्थ है-चादर। हमें उतने ही पाँव फैलाने चाहियें, जितनी लम्बी चादर हो; अन्य था पाँव खुले रहेंगे। आशय यह है कि आय के अनुरूप ही व्यय करना चाहिये; अन्यथा उधार लेना पड़ेगा। उधार लेने से माल हल्का और महँगा मिलता है; इससे विपरीत नकद खरीद ने वालों को माल बढिया और सस्ता मिलता है; क्योंकि वे किसी दूकानदार से बँधे नहीं रहते। दस दूकानों पर माल देखकर अच्छे से अच्छा और सस्ता खरीद सकते हैं।
___ * धनश्रद्धानुरुपस्त्यागोऽनुसतव्यः॥ (धन और श्रद्धा के अनुरूप त्याग का अनुसरण करना चाहिये।)
इसका आशय यह है कि दान की मात्रा उतनी ही रखनी चाहिये, जिससे घर का आर्थिक सन्तुलन गड़बड़ा न जाय । जैसा कि महात्मा कबीर दासजी ने कहा है :
साई इतना दीजिये, जाये कुटुम्ब समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भुखा जाय ।। दूसरों की ठंड मिटाने के लिए अपनी झोपड़ी में आग लगाना उचित नहीं है। श्रद्धा में भावुकता होती है और भावुकता शक्ति से अधिक त्याग करने को प्रेरित कर सकती है, इसलिए विवेक से उसे अंकुश में रखने की जरूरत है।
* प्रतिपाद्यानुरूपं वचनमुदाहर्त्तव्यम्।। (अपने प्रतिपाद्य विषय के अनुरूप हो बात कहनी चाहिये।)
कुशल वक्ता वही है, जो अपने विषय का पूरी शक्ति से प्रतिपादन करता है- अपने विषय की पुष्टि करने वाले वचन ही मुँह से निकालता है-- उटपटाँगं नहीं बोलता। ऐसा वक्ता ही सभा में जमता है- श्रोताओं के दिल जीतता है- सर्वत्र सम्मान पाता है। कहा भी है :
तास्तु वाचः समायोग्याः याश्चित्ताकर्षणक्षमाः। स्वेषां परेषां विदुषाम् द्विषामविदुषामपि॥
-प्रसारङाभरणम् (जो वाणी अपनों के, दूसरों के, विद्वानों के ईर्षालुओं के और अनपढ़ों के भी चित्त को आकर्षित करने में समक्ष हो, वही सभा में बोलने योग्य है)
वाणी में कोमलता होनी चाहिये, मधुरता होनी चाहिये । कठोर वाणी से मित्र दूर भागते हैं; क्योंकि :
अग्निदाहादपि विशिष्टं वाक्यारूष्यम्।। (कठोर वाणी आग से भी अधिक जलाती है।)
___ आग का जला तो मरहमपट्टी से ठीक हो सकता है, किन्तु कठोर वाणी से हृदय में जो आग लग जाती है, उसका इलाज बहुत कठिन है। सन्त तुसलीदास ने भी सुझाव दिया है:
For Private And Personal Use Only