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.उदारता. शरणं किं प्रपन्नानि? विषवन्मारयन्ति किम्? न त्यज्यन्ते न भुज्यन्ते कृपणेन धनानि यत् ॥ .
-सुभाषितावलिः (कृपण धनका त्याग नहीं करता तो क्या वह शरण आ गया है ? धनका वह भोग नहीं करता तो क्या वह जहर की तरह मार डालता है ?) .
कंजूस के पास धन होता है तो उदारता नहीं होती और निर्धन के पास उदारता होती है, पर धनका अभाव होने से वह उदारता का उपयोग नहीं कर पाता। एक निर्धन कविने ब्रह्मा से प्रार्थना की है :
धनं यदिह मे दत्से विधे! मा देहि कर्हिचित्। औदार्य धनिनो देहि यन्मदीये हदि स्थितम्।।
-सुभाषितरत्नभाण्डागारम् [हे विधाता! यदि तू मुझे धन देना चाहता हो तो बिल्कुल मत देना । मेरे हृदय में जो उदारता है, वह तू धनवानों को दे देना! (बस, इससे सारा काम ठीक हो जायगा।)]
कंजूस की भला दाता से क्या समानता? परन्तु “जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि" वाली उक्ति को चरितार्थ करने वाला एक सुभाषित प्रस्तुत है :
लुब्धो न विसृजत्यर्थं, नरो दारिद्रयशङ्कया। दातापि विसृजत्यर्थ, ननु तेनैव शङ्कया ।
-कुवलयानन्दः (गरीबीकी आशंका से लोभी धनका त्याग नहीं करता; किन्तु इसी आशंका से दाता धनका त्याग करता है।)
दाता सोचता है कि पूर्वजन्म में दिये गये दान के प्रभावसे ही इस जन्म में धन मिला है; इसलिए यदि इस जन्म में दान न किया तो अगले जन्म में निर्धन बनना पड़ेगा! एक कवि ने तो कंजूस को ही सबसे बड़ा दानी मान कर इस श्लोक द्वारा अपनी बात सिद्ध की है :
कृपणेन समो दाता, न भूतो न भविष्यति। अस्पृशन्नेव वित्तानि यः परेभ्यः प्रयच्छति।।
-कवितामृतकूपः [कंजूस से बड़ा दाता न तो हुआ है और न होगा; जो बिना स्पर्श किये ही अपना (सम्पूर्ण) धन दूसरों को दे देता है!]
आशय यह है कि- वह अपना धन अपने हाथ से नहीं देता; परन्तु मरने के बाद वह सम्पूर्ण धन दूसरों के पास चला जाता है। पाई-पाई जोड़ी उसने, कष्ट उठाया उसने; किन्तु मालिक दूसरे ही बन जाते हैं :
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