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• अहिंसा. जिस दिनसे हज (तीर्थयात्रा) करने का विचार उठे, उस दिनसे मक्का (तीर्थस्थल) पहुँचने तक किसी जीव की हत्या मत करो। यदि भी काटती हो तो उसे मत मारो; केवल हटा दो।
एक मुस्लिम महात्मा शेखसादी ने लिखा है :
"तुम्हारे पाँव के नीचे दबी हुई चींटीका वही हाल होता है, जो हाथी के पाँव के नीचे दबने से तुम्हारा!"
इस प्रकार सभी धर्मोने अहिंसा की प्रेरणा दी है। यदि अहिंसा को थोड़ी देर के लिए निकाल दिया जाय - अलग कर दिया जाय तो "धर्म" में कुछ बचता ही नहीं। धर्म के सारे उपदेश हमें अहिंसा की ओर ले जाते हैं। अहिंसा ही वह समुद्र है, जहाँ विभिन्न धर्मों की सरिताएँ आकर मिल जाती है :
सब्बाओवि नईओ, क्रमेण जह सायरम्मि निवडन्ति । तह भगवईमहिंसां, सब्बे धम्मा सम्मिलन्ति ।
- सम्बोधसत्तरी [सारी (पृथ्वी भरकी) नदियाँ जिस प्रकार क्रममे बहती हुई समुद्रमें जा मिलती हैं, उसी प्रकार भगवती अहिंसा में समस्त धर्म सम्मिलित हो जाते हैं।]
आज कल सर्वधर्मसम्मेलन करने का एक फैशनही चल पड़ा है। हर धर्म वाला विश्वधर्मसम्मेलन आमन्त्रित करता है। उसमें प्रत्येक धर्म के प्रतिनिधि वक्ता आकर अपनीअपनी डफलीपर अपना-अपना राग सुनाने के बाद चले जाते हैं। आयोजकों के लाखों रूपये खर्च हो जाते हैं और परिणाम शून्य रहता है; क्योंकि जब तक अहिंसा की जीवन में प्रतिष्ठा न हो, तब तक ऐसे खर्चीले आयोजनों से आयोजकों का अहं भले ही प्रतिष्ठित हो जाय, परन्तु धर्म प्रतिष्ठत नहीं हो पाता। संबोधमतरी की जो गाथा अभी आपने सुनी, उसके चौथे चरण
“सचे धम्मा सम्मिलन्ति" इन शब्दों के द्वारा सर्व धर्मसंमेलन का उल्लेख किया गया है। धार्मिक-द्वन्द्व, साम्प्रदायिक विद्वेष, मजहबी कट्टरता और आपसी नफरत केवल तभी मिट सकती है, जब जीवनमें अहिंसा की प्रतिष्ठा हो। अहिंसा में ही वास्तविक सर्वधर्मसंमेलन के दर्शन होते हैं- वैरविरोध शान्त होते है- पारस्परिक प्रेम प्रकट होता है :अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग : ॥
-पातंजल योगदर्शन (यदि किसी व्यक्ति के जीवन में अहिंसा प्रतिष्ठित हो जाय तो उसके सान्निध्यमे रहने वाले सहज वैरी प्राणी भी वैरका त्याग कर देते हैं।)
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