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- मोक्ष मार्ग में बीस कदम, क्रोधपर ही क्रोध करनेका अर्थ है – उसे मारना स्थानाङ्ग-सूत्र में क्रोध की उत्पत्ति क्यों होती है ? इस पर विचार किया गया है:
चरहिं ठाणे हिं कोहपत्ति सिया तंज हा-खेत्तं पडुच्च, क्त्युं पडुच्च,
सरीरं पुडुच्च, उवहिं पडुच्च ॥ [चार कारणों से क्रोध की उत्पत्ति होती है- (१) क्षेत्र (२) वस्तु अर्थात् घर, मकान, दुकान, बिल्डिंग आदि (३) शरीर और (४) उपधि अर्थात् उपकरण या उपयोगी वस्तुओं के कारण]
आज के विचारकोंकी दृष्टिमें क्रोध की उत्पत्ति के पाँच कारण हैं :(१) दुर्वचन-कोई कठोर वचन कह दे या गाली दे तो क्रोध आ जाता है।
(२) स्वार्य में बाधा- अपनी स्थ पूर्ति में जो व्यक्ति बाधा डालता है, उस पर क्रोध आता है।
(३) अनुचित व्यवहार- यदि कोई अपमानजनक व्यवहार करे तो अहं को चोट लगने से क्रोध उमड़ पड़ता है।
(४) भ्रम- गलतफहमी के कारण जो अयथार्थ है, उसे यथार्थ मान लेने के कारण (जैसे पत्नी को किसी पुरुष से बात करती हुई देख लेने पर उसके चरित्र पर आशंका हो जाना या पतिको किसी स्त्री से बात करते देख कर उसके चरित्र पर शंका करना आदि।)
(५) विचार एवं रूचि में भेद- पिता और पुत्र, सास और बहू, भाई और भाई आदि में मत-भेद तथा रुचिभेद के कारण परस्पर भीषण क्रोध लहराने लगता है। क्रोध की स्थिति भी पात्रके अनुसार भिन्न-भिन्न होती है:
उत्तमस्य क्षणं कोपम् मध्यमस्य प्रहरद्वयम् ।
अधमस्य त्वहोरात्रम् नीचस्यामरणं स्मृतम् ॥ [उत्तम पुरूषका क्रोध क्षणिक होता है- क्षणभर में चला जाता है। मध्यम श्रेणी के पुरुष में क्रोध दो प्रहर (आठ प्रहर एक दिन रातमें होते है; इसलिए दो प्रहर = छह घंटे) तक रहता है। अधम श्रेणी के पुरुषमें अहोरात्र पर्यन्त (चौवीस घंटो तक) क्रोध टिका रहता है, वे नीच पुरुष होते हैं।
जो क्रोध करता है, उसमें विचार नहीं होता और जिसमें विचार होता है, उसमें क्रोध नहीं होता।
महात्मा कन्फयूशियसने विचार पर जोर देते हुए कहा था :"जब क्रोध उठे, उसके नतीजोंपर विचार करने बैठ जाओ!'' इससे क्रोध नष्ट हो जायगा।
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