SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir • अक्रोध. प्रकार परस्पर बदला लेने की परम्परा चल निकलती है, जो पीढियों तक चलती रहती है। जहाँ क्रोध है, वहाँ प्रेम नहीं रह सकता। प्रभु महावीर ने कहा था : __ कोहो पीइं पणासेइ॥ (क्रोध प्रीति को नष्ट कर देता है।) क्रोधी को मरने के बाद भी कोई सद्गति नहीं मिलती : अहो बयइ कोहेणं ॥ [क्रोध से प्राणी अधोगति (दूर्गति) प्राप्त करता है।] किसी विचारकने कहा है :"क्रोध मूर्खता से शुरू होता है और पछतावे पर खत्म" जो क्रोध करता है, वह मूर्ख ही है- चाहे उसने कितने भी ग्रन्थ पढ़ लिये हों। क्रोध का जब नशा उतर जाता है, तब क्रोधी पछताता हैं; परन्तु क्रोध की दशामें जो काम बिगड़ गया, वह सुधर नहीं सकता। उसका पछताना व्यर्थ जाता है। एक कविने बुखारसे क्रोध को कई गुना हानिकर बताते हुए अपने संस्कृत श्लोक में कहा है : हरत्येकदिनेनैव ज्वरं पाण्मासिकं बलम् क्रोधेन तु क्षणेनैव कोटि पूर्वार्जितं तपः॥ (बुखार एक ही दिनमें छह महीनों तक अर्जित शारीरिक शक्ति को नष्ट कर देता है; परन्तु क्रोध तो एक ही क्षण में करोड़ो पूर्व के अर्जित तपोंको नष्ट कर देता है।) ___"क्रोध आ गया" - ऐसा हम प्रायः कहा करते हैं; परन्तु सन्त विनोबा भावे के अनुसार क्रोध भीतर ही रहता है और निमित्त पाकर प्रकट होता है। सरोवर के स्वच्छ जल में पत्थर फेंकने पर गन्दगी ऊपर आ जाती है; क्योंकि वह पहलेसे ही वहाँ मौजूद रहती है। इससे विपरीत शहरोंमें जो तरणताल बने हैं, उनमे पत्थर क्या ? चट्टान डालनेपर भी भीतर से कोई गन्दगी प्रकट नहीं होती; क्योंकि वहाँ गन्दगी है ही नहीं। सच्चे साधु-सन्तोंका ह्रदय भी कषायोंसे रहित होता है; इसलिए बाहरसे कैसा भी निमित्त मिले (कोई गाली दे या अपमान करे), उन्हें क्रोध आता ही नहीं। __ एक कविने बहुत ही अनोखे ढंग से क्रोध छोड़ने की प्रेरणा दी है। : “अपकारिषु कोपश्चेत् कोपे कोपः कथं न ते ?" [यदि तू अपकारी पुरुषोंपर क्रोध करना चाहता है तो (सबसे बड़ा अपकारी स्वयं क्रोध ही है; इसलिए) अपने क्रोध पर ही क्रोध क्यों नहीं किया करता ?] For Private And Personal Use Only
SR No.008726
Book TitleMoksh Marg me Bis Kadam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages169
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy