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५. अक्रोध
शान्तस्वभावी भव्यात्माओ!
शान्ति ही आत्मा का स्वभाव है, क्रोध नहीं। जल जिस प्रकार शीतल होता है, आत्मा भी वैसी ही शीतल है। आग के सम्पर्क से जल गरम भले हो जाय; परन्तु धीरे-धीरे वह फिर से ठंडा हो जाता है। उसी प्रकार बाहर से निमित्त पाकर आत्मा क्रुद्ध भले ही हो जाय; परन्तु धीरे-धीरे फिर शान्त हो जाती है। क्रोध विभाव है, स्वभाव नहीं। विभाव अचिरस्थायी होता है, स्वभाव चिरस्थायी।
क्रोध विनय और विवेक को खा जाता है, समझदारी को बाहर निकाल कर मन के द्वार पर चटखनी लगा देता है, जिससे कोई भी सदगुण भीतर न आ सके।
क्रोध करने का अर्थ है-दूसरे के अपगधका बदला स्वयँ अपने से लेना; क्योंकि क्रोध से क्रोधी का खून जलता है- स्वास्थ्य नष्ट होता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि साढे नौ घंटे तक शारीरिक श्रम करने से जितनी शक्ति क्षीण होती है उतनी केवल पन्द्रह मिनिट तक क्रोध करने से नष्ट हो जाती है।
क्रोध काँटे से अधिक भयंकर होता है; क्योंकि काँटां जिसे चुभता है, उसी को कष्ट देता है; चुभाने वाले को नहीं; परन्तु क्रोध दोनों को कष्ट देता है - क्रोधी को भी और जिस पर क्रोध किया जाता है उसे भी!
क्रोध को समुद्र की तरह बहरा माना गया है; क्योंकि वह किसी की सलाह मानता ही नहीं-किसी का उपदेश सुनता ही नहीं, बल्कि उपदेश देने से क्रोधी का क्रोध बढ़ जाता है:
उपदेशो हि मूर्खाणाम् प्रकोपाय न शान्तये।
पयःपानं भुजङ्गानाम् केवलं विषवर्धनम् ॥ [मूों को उपदेश देने से उनका गुस्सा बढ़ता है, शान्त नही होता। जैसे साँपों को दूध पिलाने से उन का जहर बढ़ता ही है (घटता नहीं)]
क्रोधी को आग की तरह उतावला कहा गया है; क्योंकि क्रोधी बिना सोचे-समझे दूसरों को मनमाना कष्ट जल्दी से जल्दी दे डालता है।
क्रोध आता क्यों है ? अहंकार के कारण। जो जितना अहंकारी होगा, उसे उतनी ही जल्दी गुस्सा आ जायगा; क्योंकि किसी कारण जब उसके अहंकार को चोट लगती है, तब वह असह्य हो जाती है और जब तक अपने को अपमानित करनेवाले से वह बदला नहीं ले लेता, तब तक शान्त नहीं हो सकता-- चुप नहीं रह सकता- बदला लेने की कोई-न-कोई योजना सोचता ही रहता है। क्रोधी जिसमे बदला लेता है, वह भी बदला लिये बिना नहीं रहता। इस
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