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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - मोक्ष मार्ग में बीस कदम. हरिभद्र के इस वाक्य को सुनते ही साध्वी चल पड़ी। आगे-आगे साध्वी और पीछेपीछे हारे हुए खिलाड़ी की तरह हरिभद्र! उपाश्रय में पहुँचके ही साध्वी ने गुरुदेव को वन्दन किया। हरिभद्र समझ गये कि जिन्हें वन्दन किया जा रहा है, वे ही गुरुदेव हैं। __जिज्ञासा व्यक्त करने पर उन्होंने विस्तार से गाथा का अर्थ समझाया। अर्थ समझकर अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उन्होंने शिष्यत्व अंगीकार किया। दीक्षा ले ली। क्रमश: जैनशास्त्रों का गुरुदेव से अध्ययन किया। विशिष्ट बुद्धिमत्ता के कारण वे बहुत जल्दी जैनशास्त्रज्ञ बन गये। सुयोग्य समझकर गुरुदेव ने उन्हें आचार्यपद पर प्रतिष्ठित किया। वे जैनाचार्य श्री हरिभद्रसूरि के नाम से विख्यात हुए। उन्होंने एक हजार चार सौ चवालीस जैनग्रन्थों की रचना की। आवश्यक नियुक्ति की वृत्ति (संस्कृत टीका) लिखते समय ‘चक्किदुगं हरिपणगं' इस गाथा का विस्तार के साथ भावविमोर होकर अर्थ लिखा; क्योंकि इसी गाथाने उनके जीवन को परिवर्तित किया था।गाथा भी सबसे पहले साध्वी याकिनी महत्तरासे सुनने में आई थी; इसलिए उन्हें मातृवत् पूज्य मानते रहे । अपने को जीवन-भर उनका पुत्र माना । प्रत्येक ग्रन्थ में अपने नाम से पूर्व “याकिनीमहत्तरासूनुः हरिभद्रसूरिः" ऐसा लिखकर उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त की: विया ददाति विनयम् विनयाद् याति पात्रताम् ॥ [विद्या से विनय और विनय से पात्रता (योग्यता) प्राप्त होती है।] भवन्ति नमास्तरवः फलोद्गमैः॥ (ज्यों-ज्यों फल निकलते हैं, त्यों-त्यों वृक्ष झुकते जाते है।) इसी प्रकार ज्यों-ज्यों ज्ञानादि सद्गुण प्राप्त होते हैं, त्यों-त्यों सज्जन पुरुष नम्र होते जाते हैं। रामने लक्ष्मण को रावण के पास राजनीति की शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा। रावण उस समय रणक्षेत्र में घायल होकर मृत्युकी प्रतीक्षा कर रहा था। वह लेटा हुआ था। लक्ष्मण ने कहा :-- “मैं राम की आज्ञासे आपके पास शिक्षा लेने आया हूँ। मुझें गजनीति की शिक्षा दीजिये।" रावण ने कहा :- “मैं अपात्र को शिक्षा नहीं देता!'' लक्ष्मण लौट गये। राम के पूछने पर बोले :- "भाई साहब! आपने वहाँ मुझे शिक्षा लेने भेजा या अपमानित करने के लिए ?" । राम :- “क्यो ? क्या कहा उन्होंने ?' लक्ष्मण :- "मुझ से कहा कि मैं अपात्र को शिक्षा नहीं देता!" राम :- “तुम बैठे कहाँ थे ?" लक्ष्मण :- “मैं उस घायल रावण के मस्तक के पास बैठा था, जिससे उसके मुँह से ३२ For Private And Personal Use Only
SR No.008726
Book TitleMoksh Marg me Bis Kadam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages169
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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