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- मोक्ष मार्ग में बीस कदम. आत्मप्रशंसा अपने आपमें एक मानसिक बीमारी है। फिर गुरूदेव के सामने आत्मप्रशंसा करना-अपने सद्गुणों का वर्णन करना तो पागलपन है। उसके मूल में केवल अहंकार है; और कुछ नहीं! अहंकार छोड़कर जो विनीत बनता है, उसी की उन्नति होती है :
लघुता से प्रभुता मिले प्रभुता से प्रभु दूर।
चींटी ले शक्कर चली, हाथी के सिर धूर । कुएँ में बाल्टी सीधी डालोगें तो वह भोगी नहीं; झुकेगी, तभी भरेगी। उसी प्रकार जो नम्र होगा, उसी में ज्ञान का प्रवेश होगा।
___ आँधी बड़े-बड़े झाड़ों को उखाड़ फेंकती है; परन्तु दूब को ज्यों का त्यों रहने देती है; क्योंकि वह छोटी होती है-नम्र होती है। गुरु नानकदेव कहके है :
'नानक' नन्हें है रहो, जैसे नन्हीं दूब ।
और घास जल जायगी, दूब खूब की खूब ।। स्टेशन पर गाड़ी तभी प्रवेश करती है; जब सिग्नल झुका हो। ठीक उसी प्रकार जीवन में ज्ञान तभी प्रवेश करता है, जब गुरुचरणों में मस्तक झुका हो।
अहंकार की दीवार ही स्वरूपके परिचय में बाधक है; इसलिए बिना नमस्कार के उद्धार नहीं होता। नमस्कार यदि श्रद्धापूर्वक किया जाय तो एक भी पर्याप्त है :
इक्कोवि णमुक्कारो जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स।
संसार सागराओ, तारेइ नरं व नारिं वा।। (जिनवरों में उत्तम वर्धमान स्वामी को किया गया एक नमस्कार भी स्त्री हो या पुरुष सबका संसार सागर से उद्धार कर देता है।) अहंकार के विपरीत “नाहम्''का भाव पैदा करने के लिए सोचना चाहिये :
I am nothing - I have nothing (में कुछ नहीं हूँ। मेरा कुछ नहीं है।)
'नाहम्' के बाद “कोऽहम्' (मैं कोन हूँ ?) यह जिज्ञासा और फिर “सोऽहम्' [ मैं वही (परमात्मस्वरूप) हूं।] यह समाधान होगा। सुनने में यह बात सरल लगती है; परन्तु इसकी साधना कठिन है। महर्षि अरविन्द घोष चालीस वर्ष की लम्बी अवधि तक योग साधना द्वारा परमात्मतत्त्व की खोज करते रहे; फिर भी अन्त में उनके मुँह से यही उद्गार प्रकट हुए कि अब तक मेरी खोज अधूरी है। यह जानते हुए भी यदि कोई अपने ज्ञान का अहंकार करता है तो उससे अच्छा पागल कहाँ मिलेगा ?
हिन्दी में कहावत हैं :- “घमण्डी का सिर नीचा!'' इंग्लिश में भी :
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