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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir •अभिमान . बहुत से लोग जिज्ञासु बन कर ज्ञान का प्रदर्शन करते हैं। जहाँ प्रदर्शन होगा, स्वदर्शन नहीं हो सकता।जहाँ दिखावे का प्रयास, वहाँ सत्यानाश! ये 'जिज्ञासु' जो प्रश्न करते हैं, उसके मूल में अहंकार होता है। प्रश्न भी इधर-उधर से सुना हुआ होता है, भीतर से निकला हुआ नहीं। यदि किसीका पेट दुखता हो और वह वैद्य के पूछने पर कहे कि मेरा सिर दुखता है तो उसका इलाज कैसे होगा? इलाज के लिए आपको अपनी ही बीमारी बतानी होगी, पड़ोसी की नहीं। पड़ौसी की बीमारी वैद्य को बताने से न आपका इलाज होगा, न पड़ौसी का ही। कहने का आशय यह है कि यदि आपको अपनी शंका का समाधान पाना है तो गुरूदेव के सामने अपनी शंका ही प्रस्तुत कीजिये। कुछ लोग गुरुदेव को नीचा दिखाने के लिए अथवा उनके ज्ञान की परीक्षा लेने के लिए ऐसे प्रश्न करते हैं, जिनका उत्तर वे जानते हैं। स्पष्ट ही ऐसे प्रश्न के मूल में अभिमान होता है, जिज्ञासा नहीं। उन्हें उनकी जानकारी के अनुकूल उत्तर मिल भी गया तो भी उनके चेहरे पर प्रसन्नता नहीं दिखाई देगी। इससे विपरीत उनका चेहरा उतर जायगा; क्योंकि गुरूदेव को नीचा दिखाने के प्रयास में वे सफल न हो सके - इस बातका उन्हें दुःख होगा। ऐसे अभिमानी दया के पात्र हैं। स्वस्थ होने के लिए डाक्टर के सामने जिस प्रकार अपने रोग का वर्णन करते हैं, उसी प्रकार जीवन शुद्धि के लिए गुरुदेव के सामने अपने पापों का-अपनी कमियों का- बुराइयों का वर्णन किया जाना चाहिये। जैसा कि प्रतिक्रमणसूत्र में कहा है : "निन्दिय गरहिय गुरुसगासे..." [गुरूदेव के सामने (अपने पापों की) निन्दा-गर्दा करनी चाहिये] यदि कोई डाक्टर के पास जाकर कहें - “मुझे समय पर भूख लगती है । अजीर्ण तो बिल्कुल नहीं है | मैं फल-दूध आदि सात्त्विक भोजन अधिक मात्रा में करता हूँ। शुद्ध हवा में प्रातः काल भ्रमण करता हूँ। शरीर में स्फूर्ति है मन में उमंग है..." तो डाक्टर क्या कहेगा? वह कहेगा :- “आप यहाँ शायद भूल से आ गये हैं। केवल बीमारों के लिए यह स्थान है। आप तो पूर्ण स्वस्थ हैं। जाइये यहाँ से!'' उसी प्रकार गुरूदेव के निकट जाकर यदि आप कहें :- “मैं सुबह-शाम प्रतिक्रमण करता हूँ । अनेक बार सामायिक करता हूँ। वन्दन-दर्शन-पूजन करता हूँ। तीर्थयात्रा भी वर्ष में दो-तीन बार कर आता हूँ। यथाशक्ति दान करता हूँ। धर्मग्रन्थों का स्वाध्याय करता हूँ। तपस्या करता हूँ। इन्द्रियों को वश में रखता हूँ। कषायोंसे दूर रहता हूँ..." तो गुरूदेव कहेंगे :- "फिर आपको यहाँ आने की क्या आवश्यकता है ? केवल पापियों के लिए अथवा जिज्ञासुओं के लिए यह स्थान है। आप तो बड़े पुण्यात्मा हैं-धर्मात्मा हैं-ज्ञानी हैं। जाइये यहाँ से!" २७ For Private And Personal Use Only
SR No.008726
Book TitleMoksh Marg me Bis Kadam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages169
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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