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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४. अभिमान विनीत महानुभावो! विनय को नष्ट करने वाले जो दुर्गुण है, उसे अभिमान कहते है : माणो विणयनासणो ॥ (मान अर्थात् घमण्ड विनय (नम्नता) का नाशक है।) ____ अहंकार को नष्ट करने के लिए जैन धर्म में नमस्कार महामन्त्र मौजूद है, जिसका संक्षिप्त रूप है : नमोऽहत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यः ॥ अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सब साधुओं को नमस्कार हो। किसीने प्रथमाक्षरों के मेल से इस का संक्षिप्त रूप और भी संक्षिप्त रूप बनाकर प्रस्तुत किया : "असिआउसाय नमः" यह रूप भी जपके लिए जब बड़ा मालूम हुआ, तब संक्षिप्ततम रूप सन्धिके आधार पर बना लिया गया : "ओम नमः ॥" सिद्धके लिए "अशरीरी' और साधु के लिए 'मुनि' पद के आद्याक्षरों को ग्रहण करके सन्धि की गई। इन परिवर्तित शब्दों के आद्याक्षर लेने पर पाँचों पदोंके आद्याक्षर बने :- अ+अ+आ+उ+म् =ओम् (अ+अ आ, आ+आ आ दोनों जगह दीर्घ स्वर सन्धि हुई। फिर आ+उ=ओ यहाँ गुण-स्वर सन्धि हुई। अन्तमें म् जुड़ने पर बना गया ओम् ।) ओम् को नमस्कार करने से अथवा ईश्वर के प्रति कृतज्ञ रहने से अहंकार पर अंकुश बना रहता है। अहंकार से बचने के ही लिए घोर परिश्रम से अर्जित भौतिक सुखसामग्री के लिए मनुष्य कह देता है :- “यह सब तो ईश्वर की कृपा से मुझे मिला है।" सच पूछा जाय तो वीतराग देव किसी पर कृपा और किसी पर अकृपा नहीं करते। उन के लिए सभी प्राणी समान हैं। सिद्धशिला पर बैठे हुए वे सबको जानते हैं और देखते हैं; फिर भी भक्त अपने अहंकार पर अकुंश लगाने के लिए ऐसी भाषा का प्रयोग करता है। __ जो समझता है- मैं ज्ञानी हूँ- बहुत बड़ा विद्धान हूँ, उसका विकास नहीं हो सकता। खुराक हजम न हो तो खाने का सन्तोष भले ही हो जाय, शक्ति नहीं बढ़ सकती। शक्ति के लिए पाचन की जरूरत होती है। ज्ञानको भी पचाना पड़ता है। २६ For Private And Personal Use Only
SR No.008726
Book TitleMoksh Marg me Bis Kadam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages169
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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