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- मोक्ष मार्ग में बीस कदम, मुनि समयसुन्दर गणि के उदाहरण से हमने जाना था कि एक शब्द के अनेक अर्थ होते है और सब अर्थो का ज्ञान होने पर समन्यवय हो जाता है। उसी प्रकार कभी-कभी अनेक शब्दोंका भी अर्थ एक होता है। जब तक उस अर्थका ज्ञान हो जाय, तब तक मतभेद बना रहता
है।
_ पैसेंजर ट्रेन के डिब्बे में कुछ यात्री बैठे थे। कौन-सा फल श्रेष्ठ होता है ? इस पर बहस छिड़ गई। अरबी आदमीने कहा :- "एनब को मैं सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ । बहुत स्वादिष्ट होता है वह !"
तुर्कीने कहा :- “मैं तो उजम को अच्छा समझता हूँ। मुँह में रखते ही मजा आ जाता
अंग्रेजने कहा :- "एनब और उजम तो मैंने देखे नहीं; परन्तु जिन फलों कों मैं जानता हूँ, उन सबमें उत्तम फल ग्रेप्स होते हैं।"
भारतीय बोला :- “पता नहीं, आप किस-किस फल की तारीफ कर रहे है; परन्तु मेरी दृष्टि में केवल अंगूर सर्वोत्तम फल है। खट्टा भी और मीठा भी! पचने में आसान।'
इतने में स्टेशन आ गया। एक खोमचे वाले से सबने एक ही फल खरीद कर खाया! तब पता चला कि हम सब एक ही बात अलग-अलग भाषा में कह रहे थे।
किसी प्रश्न का ठीक उत्तर तभी दिया जा सकता है, जब अनेकान्त का सहारा लिया जाय । प्रभु महावीरने तो इसका व्यापक प्रचार किया ही था; परन्तु उनसे पहले भी बुद्धिमान् व्यक्ति उसका प्रयोग करते रहे हैं।
हनुमानजी को "बुद्धिमतां वरेण्यः" (बुद्धिमानों में श्रेष्ठ) कहा जाता है। उनसे एक बार श्री रामचन्द्रजीने अपने पास बुलाकर पूछा :- "आप कौन हैं ? कृपया अपना परिचय दीजिये।" इस पर हनूमान् बोले :
देहदृष्टया तु दासोहम् जीवदृष्टया त्वदंशकः ।
आत्मदृष्टया त्वमेवाहम् इति मे निश्चिता मति : ॥ (देह की दृष्टि से मैं आपका दास हूँ। जीव की दृष्टि से मैं आपका अंश हूँ। आत्मा की दृष्टि से मुझमें आपमें कोई अन्तर ही नहीं है। यह मेरी निश्चितत मान्यता है!)
क्या हनूमान्जी के इस अन्तर में अनेकान्त सिद्धान्त की झलक नहीं मिल रही है ? खोजने पर ऐसे और भी उदाहरण मिल सकते है; परन्तु वे विरल होंगे।
प्रभु महावीर के द्वारा किये व्यापक प्रचार के फलस्वरूप इसका जैनाचार्यो ने तथा अन्य दार्शनिकों ने खुलकर प्रयोग किया और अपने-अपने द्वन्द मिटाये, मत--भेद हटाये, झगड़े
दूर किये।
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