SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir •अनेकान्त. (सब शब्द सारे अर्थ प्रकट करनेवाले हैं।) जरूरत है- प्रतिभाकी, बुद्धिमत्ता की, चिन्तन की, मनन की। प्रतिभाशाली विद्वान् की अनेकान्तरूपी रत्न के प्रकाश से मत-भेदों का अन्धकार मिटा सकता है। सारे दर्शन अनेकान्त रूपी बाड़ेके पशु हैं। आचार्य हेमचन्द्रसूरि के जीवन की एक घटनासे यह बात स्पष्ट हो जायगी। महाराजा सिद्धराजकी राजसभामें एक बार आचार्यजी पधारे। उनके हाथ में डंडा था और कन्धेपर कम्बल | वे जैन श्वेताम्बर साधु की सादी पोशाक में थे। दूरसे ही उन्हें आते देख कर एक ईर्ष्यालु कविने उनकी हँसी उड़ानेकी इच्छासे कहा “आगतो हेमगोपालो दण्डकम्बलमुद्वहन् ।" (डंडा और कम्बल धारण करने वाला यह हेम नामक ग्वाला आ गया है।) __ यह पंक्ति आचार्य श्री के कानोंमें जा पहुँची। तत्काल उन्होंने सब कुछ समझ लिया और वह विद्वान इस श्लोक की अगली पंक्ति बोले, उससे पहले ही उसका समुचित उत्तर देने वाली पंक्ति अपनी ओर से बनाकर इस प्रकार सुनाई : __ "षड्दर्शनपशुप्रायां- श्चारयन जैनवाटके ।।" [षड्दर्शन रूपी पशुओं को जैनसिद्धान्त (अनेकान्त) रूपी बाड़े में चराता हुआ (मैं हेमगोपाल आ गया हूँ)] इसी प्रकार एक ईर्ष्यालु पंडितने सामने से आते किसी जैन साधुकी ओर इंगित करते हुए कहा :- "हे मित्र! जो इन साधुओं को देखता है, वह सीधा नरक में जाता है।" यह सुनकर जैन साधुने धीरे से मुस्कुराते हुए कहा :- "और जो आपके दर्शन करता है, वह कहाँ जाता है ?' "स्वर्गमें !" पंडित की यह बात सुनकर जैन मुनि बोले :- "तब तो आपके ही कथनानुसार आपके दर्शनों के फलस्वरूप मुझे स्वर्ग मिलना चाहिये और मेरे दर्शनों से आपको क्या मिलना चाहिये? आप स्वयं सोच लें और यदि आपने गलत सोचा हो तो अपनी मान्यता में सुधार कर लें।" इस पर लज्जित होकर उस पंडितने अपने शब्द वापिस ले लिये। एक जगह किसी ईर्ष्यालु विद्वान् ने अपने शिष्योंसे कहा :- "ये जैन मुनि कितने गन्दे रहते हैं ? कभी नहाते तक नहीं! उनकी संगति से बचते रहना।" ___ यह बात किसी जैन मुनि को सुनाकर उसका दिल जलाने की दृष्टि से ही कही जा रही थी। वह मुनि संयमी था; इसलिए बिल्कुल शान्ति से उसने उत्तर दिया :- “महानुभाव! गाय कभी नहाती नहीं और भैंस पानीमें ही पड़ी रहती है। आप दोनों में से किसे पूज्य मानते है ?" इससे पंडित निरुत्तर हो गया। एकांगी संकुचित दृष्टिकोण रखने वाले ईर्ष्यालुओं को ईसी प्रकार निरुत्तर और लज्जित होना पड़ता है। For Private And Personal Use Only
SR No.008726
Book TitleMoksh Marg me Bis Kadam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages169
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy