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•अनेकान्त. अनेकान्तावादी कहता है :
उप्पन्ने वा विगए धुवे वा ॥ यही बात संस्कृत में कही गई है :
उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्तं हि सत् ॥ [उत्पत्ति, नाश और स्थिरता-इन तीनों गुणों से युक्त होता है- सत् (पदार्थ)]
द्रव्यदृष्टि से जो वस्तु नित्य है, पर्याय दृष्टि से वही अनित्य भी होती है। कडा तुड़वाकर हार बनवा लिया और फिर हार तुडवाकर मुकुट; तो कड़े और हारके रूपमें वस्तु अनित्य होकर भी स्वर्ण के रूपमें वह नित्य ही है। जो स्वर्ण कड़े में था, वही हार में और फिर मुकुट में मौजूद है। यही बात अन्य सभी विषयो में लागू होती है। भूखे के लिए जो भोजन अच्छा है, वही क्या बीमार के लिए बुरा नहीं है ? है ही ! इस प्रकार एक ही भोजन अच्छा है और बुरा भी।
जो लोग स्याद्वाद को संशयवाद कहते है, उन्होंने ग्याद्वाद का केवल नाम ही सुना है। उसे समझने की कोशिश बिल्कुल नहीं की; अन्यथा दोनों का अन्तर ध्यान में आ जाता। अन्तर यह है कि--- संशयवाद में दोनों कोटियाँ अनिश्चित रहती हैं। जैसे- "यह साँप है या गगी ?" परंतु स्याद्वाद में दोनों कोटियों का निश्चय रहता है। जैसे -- “द्रव्य दृष्टि से वस्तु नित्य भी है और पर्याय दृष्टि से अनित्य भी।" अध्यात्मोपनिषद् में लिखा है :
उत्पन्नं दधिभावेन नष्टं दुग्धातया पुनः ।
गोरसत्वात् स्थिरं जानन् स्याद्वादद्विड् जनोपिकः ? (दूध नष्ट हुआ, दहीँ उत्पन्न हुआ: परन्तु गोरसत्व दूधमें भी था और दही मैं भी है - ऐसा जानने वाला कोई भी व्यक्ति स्याद्वादका विरोधी नहीं हो सकता।) इसी ग्रन्थ में अन्यत्र लिखा है :--
जातिवाक्यात्मकं वस्तु वदन्नुभवोचितम् । भट्टो वापि मुरारिर्वा नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥ विज्ञानस्यैकमाकारम्नानाकारकरम्बितम् । इच्छंस्तथागतः प्राज्ञो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ।। इच्छन् प्रधानं सत्त्वाद्यै– विरूद्धैर्गुम्फितं गुणैः । सांख्यः संख्यावतां नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥ अबद्धं परमार्थेन बद्धं च व्यवहारतः । ब्रुवाणो ब्रह्म वेदान्ती नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥
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