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३. अनेकान्त
समन्वय प्रेमी सज्जनो!
अनेकान्त सिद्धान्त के बल पर प्रभु महावीर ने ढाई हजार वर्ष पहले प्रचलित ३६३ (तीन सौ तिरसठ) विभिन्न मतों का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत किया था।
अनेक दृष्टियों से एक वस्तु को देखना अनेकान्त है। एक ही आदमी किसी का पिता है, किसीका पति है, किसी का मामा है, किसी का पुत्र है और किसी का भाई। इसमें क्या विरोध
है
"पत्थर छोटा होता है या बड़ा ?" इस प्रश्न के उत्तर में कहना पड़ेगा - "चट्टान से पत्थर छोटा होता है और कंकर से बड़ा।" इस प्रकार पत्थर छोटा भी होता है और बड़ा भी। इसमें कौनसा विरोध है ? ___अनेकान्तवादको संक्षेप मैं स्याद्वाद भी कहते हैं, जिसकी परिभाषा इस प्रकार की गई
एकस्मिन्वस्तुन्यविरूद्धनानाधर्मस्वीकारो हि स्याद्वादः ॥ [एक वस्तुमें अविरोधी अनेक धर्मो (गुणों या विशेषताओं) को स्वीकारना ही स्याद्वाद है। प्रभु ने फरमाया है :नयासियावाय वियागरेज्जा ।
-सूत्रकृताङ १४/१९ (स्याद्वाद से रहित अर्थात् एकान्तवादी वाणी न बालें।)
“स्यात्" अपेक्षा भेदका सूचक है; इसलिए स्याद्वाद को. सापेक्षवाद भी कब सकते हैं. जो पाश्चात्य जगत् में “थ्योरी ऑफ रिलेटिविटि'' के नाम से जाना जाता है। वैदिक विद्वान इसीको दृष्टि सृष्टिवाद कहते हैं।
: अपेक्षाभेद से वस्तु में अनेक गुण-धर्मो का अस्तित्व मानने वाले अनेकान्तवाद के समर्थक हैं। एकान्तवादी केवल एक ही दृष्टिकोण से वस्तु को देखते है; इसलिए जान नहीं पाते कि किसी अन्य दृष्टिकोण से वही वस्तु अन्य प्रकारकी भी दिखाई दे सकती है। अनेकान्तवादमें ऐसा एकान्त आग्रह, जिसे दुराग्रह कहना चाहिये, नहीं होता।
एकान्तवाद यदि रोग है तो अनेकान्त वाद उसकी दवा है। बौद्धदर्शक कहता है - "सर्व क्षणिकम्" (सब अनित्य है) और वैदिक दर्शन कहता है - "सर्व नित्यम्" (सब नित्य है)। ऐसी स्थितिमें प्रश्न खड़ा होता है कि पदार्थ नित्य है या इससे विपरीत अनित्य ?
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