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- मोक्ष मार्ग में बीस कदम । अन्तमें “मैं हूँ" के प्रयोग ने ऊपर की समस्त मान्यताओं के महल ढहा दिये। अपने अस्तित्व का जो अनुभव करता है, वही वास्तव में जीव है; इन्द्रियाँ, शरीर, बुद्धि या मन नहीं; अन्यथा मेरी इन्द्रियाँ- मेरा शरीरः मेरी बुद्धि, मेरा मन आदि का प्रयोग कौन करता है ?
जीव और शरीर की भिन्नता के इस ज्ञान को ही भेदविज्ञान कहते हैं, जिससे अनासक्ति उत्पन्न होती है।
जो वस्तुएँ हमें बाहर दिखाई देती हैं, उनमें से कोई भी जीव को साथ आने वाली नहीं है :
धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे कान्ता गृहद्वारि जनःश्मशाने ।
देहश्चितायां परलोक मार्गे कर्मानुगो गच्छति जीव एकः ।। (धन जमीन में (पुराने जमाने में धन जमीन में गाड़ कर रखा जाता था; क्यों कि बैंकोकी व्यवस्था नहीं थी), पशु बाड़े में, पत्नी घरके दरवाजे तक, कुटुम्बी एवं अन्य जन श्मशान तक, देह चिता तक अपने शुभाशुभ कर्मों के साथ अकेला ही जाता है।
समस्त वस्तुएँ उधार ली हुई हैं। वे भला कब तक अपने साथ रहेंगी ? उधार से उद्धार नहीं होता । स्वर्ग की समृद्धि भी पुण्य द्वारा उधार ले ली जाती है; अतः टिकती नहीं :
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।। पुण्य के क्षीण होने पर जीवको फिर से मर्त्यलोक में जन्म लेना पड़ता है – स्वर्ग छोड़ना पड़ता
आध्यात्मिक गुण ही अन्त तक हमारे साथ रहते हैं; अतः उन्हें विकसित करने का प्रयास ही किया जाना चाहिये। उस प्रयास का मूल है – अनासक्ति।
आसक्ति वस्तुओंके प्रति ही नहीं; व्यक्तियों के प्रति भी होती है, जो अनुचित है। सत्यान्वेषी कभी किसी व्यक्ति का पक्षपात नहीं करता। सुप्रसिद्ध आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने लिखा है :
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु ।
युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ (मेरा महावीर प्रभु के प्रति कोई पक्षपात नहीं है और न कपिल मुनि (सांख्यदर्शन प्रणेता) आदि के प्रति कोई द्वेष है। (मेरा तो यही कहना है कि) जिसकी बात तर्कयुक्त हो, वही मानी जाय।)
जिसमें पक्षपात होता है, उसे अपने दोष नही दिखाई देते और दूसरों के गुण भी नहीं दिखाई देते। इस प्रकार पक्षपाती अपने को सुधार नहीं पाता और दूसरों के सद्गुणोंको भी अपना नहीं पाता। उसका जीवन व्यर्थ चला जाता है । यही कारण है कि पक्षपात या आसक्ति को समस्त अनर्थो का करण माना जाता है :
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