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•अनासक्ति. जहाँ चाह (इच्छा) है, वहीं चिन्ता का निवास होता है। जो व्यक्ति-कुछ भी नहीं चाहता, उसे निश्चिन्तता के कारण शाहंशाही मिल जाती है।
दर्पण के समान होता है उसका मन । जिस प्रकार दर्पण में सेंकड़ों अलग-अलग वस्तुएँ प्रतिबिम्बित होती रहती हैं, परन्तु वह किसी वस्तु का संग्रह नहीं करता, उसी प्रकार विरक्त भी अपने सम्पर्क में आने वाली वस्तुओं का संग्रह नहीं करता; उपयोग करते हुए भी उनसे अनासक्त रहता है।
पानी से भरी हुई बाल्टी में यदि कोई अपना हाथ डाले तो वह भीग जायगा; परन्तु तेल की मालिश करने के बाद यदि हाथ डाले तो वह पानी से अलिप्त रहेगा, थोड़ा भी गीला नहीं होगा। साधक का मन भी विरक्ति की मालिश के कारण संसार से नहीं भीगता। उसमें रहकर भी अनासक्त रह सकता है।
अनासक्ति को आत्मसात् कैसे किया जाय? भेद विज्ञान के द्वारा। सूत्रकृतांग सूत्र में प्रभुने प्रतिपादित किया है :
अन्नो जीवो अन्नं सरीरम् ।।
(जीव अन्य है, शरीर अन्य) इन्द्रियाँ विषयों की ओर दौड़ती है। इन्द्रियों का सम्बन्ध शरीर से है। जीव शरीर से भिन्न है। शरीर जीव नहीं हैं। और जीव शरीर नहीं है। मृत्यु के बाद शरीर तो यहीं जला दिया जाता है अथवा दफना दिया जाता है। परन्तु जीव कायम रहता है। वह अपने शुभाशुभ कर्मों का फल भोगने के लिए फिर कोई नया शरीर धारण कर लेता है । चौरासी लाख योनियों में भटकने वाला जीव ही है, शरीर नहीं।
जल वाले नारियल को तोड़ा जाय तो भीतर का गोला टुकड़ों में निकलेगा; परन्तु जल सूख जानेपर तोड़ा जाय तो पूरा गोला सुरक्षित निकल आयगा। नारियल की तरह शरीर है, गोले की तरह जीव और जल की तरह आसक्ति । साधक भेदविज्ञान को हृदयंगम करके आसक्ति को सुखाने का प्रयास करता है।
जीव की पहिचान होती है “मैं' के प्रयोग से । प्रयोगों पर ध्यान आकर्षित हुआ। “मैं काना हूँ, मैं अन्धा हूँ, मैं बहरा हूँ, मैं गूंगा हूँ ..." आदि के आधार पर कुछ लोगोंने इन्द्रियोंको जीव मान लिया। फिर “मैं बिमार हूँ, मैं स्वस्थ हूँ, मैं स्नान करता हूँ, मैं लम्बा हूँ, मैं मोटा हूँ . . ." आदि प्रयोग देख कर कुछ विद्वानोंने शरीर को ही जीव समझ लिया।
और सूक्ष्म खोज हुई। “मैं समझता हूँ, मैं जानता हूँ, मैं पहिचानता हूँ . . ." आदि प्रयोगों से स्पष्ट हुआ कि बुद्धि ही जीव है; परन्तु "मैं सोचता हूँ, मैं मानता हूँ, मैं चिन्तित हूँ, मैं उदास हूँ . . ." आदि प्रयोगों से मन जीव है - ऐसा माना जाने लगा।
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