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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २. अनासक्ति विरक्तोपासक सज्जनो ! परमविरक्त प्रभु महावीर ने विरक्ति को मुक्ति के लिए आवश्यक माना है ममत्तं छिन्दए ताए महानागोव्व कंचुयम् ॥ (जिस प्रकार साँप अपनी केंचुल छोड़ देता है, उसी प्रकार साधक को ममता का त्याग करना चाहिये ।) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जन्म लेते ही मनुष्य फिर ममताओंसे घिर जाता है। मेरे माँ-बाप, मेरे खिलौने, मेरे पड़ौसी, मेरे मित्र, मेरा शरीर, मेरा परिवार, मेरा घर आदि “मेरा-मेरा" करते हुए ही उसका पूरा जीवन बीत जाता है। जिस वस्तु पर उसकी ममता होती है, उसके विकृत होने, नष्ट होने, खोने या चुरा लिये जाने पर वह निराश हो जाता है - उदास हो जाता है - करुण क्रन्दन करने लगता है । एक कविने यमक अलंकार का सुन्दर प्रयोग करते हुए यह प्रतिपादित किया है:यस्मिन् वस्तुनि ममता, मम तापस्तत्र तत्रैव । यत्रैवाऽहमुदासे तत्र मुदाऽऽसे स्वभावसन्तुष्टः ।। (जिस-जिस वस्तु में मेरी ममता होती है, उस-उस से मुझे सन्ताप होता है। इससे विपरीत जिस वस्तु की मैं उपेक्षा करता हूँ, स्वभाव से सन्तुष्ट होकर उसी से मैं प्रसन्न रहता हूँ ।) दो शब्द हैं - अपेक्षा और उपेक्षा । केवल "अ" और "उ" का अन्तर है; किन्तु परिणाम देखा जाय तो दोनों में जमीन आसमान से भी अधिक अन्तर मालूम होगा । अपेक्षा ( इच्छा) संसार में जीवको भटकाती है और उपेक्षा (विरक्ति) उस भटकन को समाप्त कर के जीव को मोक्ष की ओर ले जाती है : अपेक्षैव घनो बन्धः उपेक्षैव विपेक्तता ।। -- १० ( अपेक्षा ही सधन बन्ध है और उमुक्षा ही मुक्ति है ।) दुनिया पर सच्ची विजय वही प्राप्त करता है, जो अपेक्षाओंका दास ही नहीं. मालिक है : - आशाया ये दासा- स्ते दासाः सर्वलोकस्य । आशा दासी येषाम् तेषां दासायते लोकः ।। जो आशा के दास हैं, वे सारे संसार के दास हैं; परन्तु आशा जिनकी दासी है, वे संसार के स्वामी हैं ।) महात्मा कबीर ने उसे बादशाह से भी बड़ा शाहंशाह माना है :चाह गई, चिन्ता मिटी मनुआ बेपर्वाई । जिसको कछू न चाहिये, सो ही शाहंशाह ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.008726
Book TitleMoksh Marg me Bis Kadam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages169
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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