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अचौर्य ●
अमुक चौराहे पर उतार दीजिये। मैं अपने घर पहुँच जाऊँगा ।"
सहज दयालु बाबा भारती ने लँगड़े को घोड़े पर बिठा दिया और स्वयं पैदल ही लगाम पकड़कर चलने लगे ।
आठ-दस कदम आगे बढे होंगे कि सहसा एक झटके से लगाम उन के हाथ से छूट गई। घोड़े पर सवार आदमी तनकर बैठा था। घोड़े को दौड़ाने से पहले उसने बाबा से कहा कि मैं डाकू खड्गसिंह हूँ । घोड़ा हथियाने के लिए ही मैंने लँगड़े का अभिनय किया था। अब यह घोड़ा मेरा है।
बाबा ने गम्भीरता से कहा :- "हाँ, अब यह घोड़ा तुम्हारा है; परन्तु तुम से मैं एक प्रार्थना करना चाहता हूँ कि इस घटना का जिक्र किसी के सामने मत करना; अन्यथा अपाहिजों पर कोई विश्वास न करेगा!"
बाबा भारती का यह वाक्य डाकू के मस्तिष्क में छा गया। उसे चिन्तन में डुबो दिया । वह सोचने लगा कि बाबा कितने उदार हैं ! उन्हें अपने घोड़े की चिन्ता नहीं; किन्तु चिन्ता केवल इस बात की है कि भविष्य में अपाहिजों पर यदि कोई विश्वास नहीं करेगा तो परोपकार के लिए कोई प्रेरित न होगा।
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डाकू को रात भर नींद नहीं आई । सूर्योदय होने से पहले ही वह आश्रम में जाकर घोड़ा बाँध आया और डाका डालने का धन्धा छोड़कर एक सज्जन की तरह अचौर्यव्रत को अपना बैठा ।
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