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- मोक्ष मार्ग में बीस कदम । से जगह-जगह दकर गई! परन्तु अवसर बीत जाने पर पछताने से क्या लाभ?
विद्रोही डेन्मार्क के लोगों ने प्रचण्ड युद्ध में आल्फ्रेड की सेना को हरा दिया था। पराजित आल्फ्रेड एक दूर्ग में जा छिपा। उसके साथ कुछ सैनिक भी थे। धीरे-धीरे खाद्य सामग्री समाप्त हो गई। स्वयं आल्फ्रेड भी कई दिनों से भूख सह रहा था। ऐसी स्थिति में तीन दिन से भूखा एक सैनिक आल्फ्रेड के समीप पहुँचकर उससे खाने की कोई वस्तु माँगने लगा।
आल्फ्रेड ने अपनी रानी की ओर देखा। कई दिनों बाद बड़ी मुश्किल से उसी दिन उसे एक रोटी प्राप्त हुई थी। रानी ने रोटी के दो टुकड़े करके रखे थे। एक टुकड़ा अपने लिए था और दूसरा आल्फ्रड के लिए। आल्फ्रेड ने रानी से कहा :- "रानी! दो-तीन सैनिक भोजन सामग्री जुटाने के लिए बाहर गये हैं। वे अवश्य कुछ लायेंगे। तब तक मेरे हिस्से की आधी रोटी इस भूखे सैनिक को दे दो।"
रानी ने वह आदेश सुना वह भी उदारता में पतीदेव से कम नहीं थी। अपने हिस्से की आधी रोटी भी मिला कर उसने पूरी रोटी उस सैनिक को दे दी।
पुण्य का फल तत्काल मिला ।गये हुए सैनिक पर्याप्त भोजन लेकर लौटे। सब ने भरपेट भोजन किया। बौद्धों के धर्मशास्त्रों में लिखा है :
नीत्थ चित्ते पसन्नम्हि अप्प का नाम दक्खिणा। [यदि प्रसन्नता से परिपूर्ण चित्त हो तो कोई भी दान अल्प (कम) नहीं होता!] किसी विचारक ने लिखा है :
'लो मत, भले ही स्वर्ग मिलता हो;
किन्तु दे दो, भले ही स्वर्ग देना पड़े!' एक व्यापारी ने अपने व्यवहार से यह आदर्श प्रस्तुत किया था।
अपना जहाज माल से भरकर दोबीवे व्यापार के लिए अन्य देश की ओर जा रहा था। मार्ग में उसे गुलामों से लदा एक जहाज मिला। उसके हृदय में सहानुभूति की सरिता बहने लगी। जहाज के मालिक से बातचीत करके उसने अपना जहाज बदल लिया।
फिर सभी गुलामों से उनका पता पूछकर सबको उसने उनके घर भेज दिया। सिर्फ एक कन्या और उसकी दासी रह गई। कन्या रूस के सम्राट की पुत्री थी और अपने घर लौटना नहीं चाहती थी। दोब्रीवे की असाधारण उदारता से प्रसन्न होकर उसने उससे विवाह कर लिया।
दोस्रीवे पत्नी और दासी को साथ लेकर जब अपने घर लौटा तो उसके पिताजी बहुत नाराज हुए।
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