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है, मालिक या स्वामी नहीं। कहा है :
'रहिमन' वे नर मर चुके जे कहुँ माँगत जाहिं । उनसे पहिले वे मुए जिन मुख निकसत "नाहिं " ॥
जो माँगते हैं, वे तो मुर्दे ( गौरव - हीन ) हैं ही; परन्तु जो इन्कार कर देते हैं- "नहीं है" ऐसा कह देते हैं, वे तो उन (याचकों) से भी पहले मर चुके हैं।
जिस धन का दान या भोग नहीं किया करता, उसका वह धनी आदमी रखवाला मात्र
यद्ददासि विशिष्टेभ्यो यच्चाश्नासि दिने दिने । तत्ते वित्तमहं मन्ये शेषमन्यस्य रक्षसि ।।
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दान ●
- हितोपदेशः
[ जो विशिष्ट व्यक्तियों (सुपात्रों) को तुम दान करते हो और जो प्रतिदिन खाते हो, मैं मानता हूँ कि वही धन तुम्हारा है; शेष सारा धन दूसरों का है, जिसकी तुम रखवाली करते हो ।] दानवीर के रूप में कर्ण भी बहुत प्रसिद्ध हैं। उनके द्वार से कभी कोई याचक खाली हाथ नहीं लौटता था ।
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महाभारत के युद्धक्षेत्र में एक दिन वे घायल होकर पड़े थे । श्रीकृष्ण को उसी समय उनकी दानवीरता की परीक्षा लेने की बात सूझी। इसके लिये वे ब्राह्मण का वेष ले कर वहाँ जा पहुँचे । कर्ण के पास उस समय कुछ भी देने लायक नहीं था । "क्या दूँ ? याचक यदि निराश होकर लौटता है तो नियम टूटता है ! जो जीवन-भर प्राप्त यश के प्रतिकूल होगा ।"
कहते हैं- "जहाँ चाह, वहाँ राह" कर्ण को दान करने की तीव्र इच्छा थी; इसलिए उनका ध्यान सहसा अपनी दंतपंक्ति पर चला गया। वहाँ किसी दाँत में सोने की एक मेख लगी थी । फिर क्या था ? तत्काल उन्होने पास में पड़े एक पत्थर से अपने दाँत तोड़े ! फिर उस स्वर्ण मेख को बाहर निकाला और विप्ररूपधारी श्रीकृष्ण के चरणों में उसे रख दिया।
श्रीकृष्ण ने प्रकट होकर उनकी हार्दिक प्रशंसा की ।
तट पर लहरों के थपड़े देते हुए एक दिन सरोवर ने सरिता से कहा :- "बहुत दूर सेलाई हुई अपनी जलसंपदा खारे समुद्र को लुटा देना भी क्या कोई समझदारी का काम है ?" सरिता " प्रतिफल की इच्छा के बिना निरन्तर देते रहना ही मेरा धर्म है। दान में ही जीवन की सफलता है; संग्रह में नहीं ।"
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कुछ महीने बीते। गर्मी का मौसम आया। सरोवर का जल सूख गया। सर्वत्र उसमें कीचड़ ही कीचड़ रह गया । उसकी दुर्दशा देखकर सरिता बोली :- "क्यों भाई सरोवर ! वह अपार जलसम्पदा कहाँ है ? जिसका तुमने संग्रह किया था ? मैं क्षीण काय होकर भी जी तो रही हूँ; क्योंकि मैं बहती रहती हूँ- निरन्तर देती रहती हूँ ।"
यह सुनकर लज्जित सरोवर और अधिक सूख गया। उसकी छाती पश्चात्ताप के दुःख
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