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१४. दान
दानवीर पुण्यात्माएँ!
कल त्याग विवेचन किया गया था। दान में भी त्याग तो करना ही पड़ता है; परन्तु त्याग में दान हो-यह आवश्यक नहीं। साधु अनगार होता है। वह घर का त्याग करता है; परन्तु घर का दान नहीं करता । त्याग में भमता छोड़ने की मुख्यता है, जब कि दान में अनुग्रह की मुख्यता होती है :
अनुग्रहार्थ स्यातिसर्गो दानम्॥ विधि-द्रव्य-दातृ-पात्रविशेषात्तद्विशेषः।।
-तत्त्वार्थसूत्र ७/३३,३४ (अनुग्रह के लिए अपनी वस्तु का त्याग करना दान है। विधि, द्रव्य, दाता और पात्र की विशेषता से दान में विशेषता उत्पन्न हो जाती है।)
इन सूत्रों से पता चलता है कि दान में त्याग की अपेक्षा, अधिक व्यापक विचार करना पड़ता है। देश-काल के औचित्य का तथा लेने वाले के सिद्धान्त में बाधा न आये-ऐसा विचार करना विधिविचार है। दी जानेवाली वस्तु के गुण-दोष का, उपयोगिता का विचार द्रव्यविचार है। दाता में श्रद्धा कितनी है- दानपात्र के प्रति तिरस्कार, उपेक्षा, असूया तो नहीं है- दान के बाद उसमें किसी प्रकार का पश्चत्ताप, शोक या विषाद के भाव तो नहीं पैदा होते...इत्यादि विचार दातृविचार है। जिसे दान किया जा रहा है, वह सुपात्र है या नहीं अर्थात् वह दत्त वस्तु का सदुपयोग करना या दुरुपयोग ऐसा विचार पात्रविचार है। दान जीवन के सद्गुणों का मूल है। दया को धर्म की माता कही गया है :
“धम्मस जणणी दया।।" कौन-सा है वह धर्म? वह धर्म है-दान । दया की रचनात्मक अभिव्यक्ति दान है। जब तक हृदय में सहानुभूति न होगी-अनुकम्पा न होगी, तब तक मनुष्य दान नहीं कर सकता। दानकी दुर्लभता बताते हुए कहा है:
शतेषु जायते शूरः सहस्त्रेषु च पण्डितः।
वक्ता दशसहस्सेषु दाता भवति वा नया।। (सैंकडों व्यक्तियों में कोई एक शूरवीर होता है। हजारों व्यक्तियों में से कोई एक पंडित होता है। दस हजार में से कोई एक वकता होता है और दाता तो कभी होता है अथवा कभी नहीं भी होता।)
भोजन का कहीं से निमन्त्रण आने पर जो चेहरा खिल उठता है, दान का प्रसंग आने
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