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.त्याग. To hold the hands in prayer is well
but to open them in charity is batter. (प्रार्थना में हाथ जोड़ना अच्छा है; परन्तु त्याग में उन्हें खोलना और भी अधिक अच्छा है)
त्याग में विवेक होना चाहिये। केवल अनुकरण से उसका लाभ नहीं मिल सकता।
एक श्राविका के घर कोई साधु गोचरी के लिए आएँ। वे बड़े तपस्वी थे। भिक्षा लेकर ज्यों ही बाहर निकले, सब लोग उस श्राविका की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।
पड़ौस में एक वेश्या रहती थी। उस का मन भी प्रशंसा पाने के लिए ललचाया। कई साधुओं से उसने गोचरी के लिए घर आने का आग्रह किया; परन्तु नियमानुकूल आहार मिलने की आशा न होने से कोई आने को तैयार न हुआ।
आखिर उसने एक भाँड को पकड़ा। वह साधु का वेष लेकर आ गया। वेश्या ने खूब आदर-सत्कार के साथ बहुमूल्य भोजन उसके पात्र में परोस दिया। भाँड सड़कपर खड़ा-खड़ा खाने लगा। लोग जानते थे कि वह बहुरुपिया है। झूठा साधुवेष धारण करने से नाराज होकर लोग उसे पत्थरों से मारने लगे। भाँड बोला :
__वह साधू वह श्राविका तू वेश्या मैं भाँड।
थारा-मारा भाग्य तूं पत्थर बरसे राँड! त्याग और त्यागी के नकली अनुकरण से ऐसी ही दुर्दशा होती है। प्रवचन के बाद आपसे पूछा जाय कि संसार कैसा है तो आप कहेंगे- "बहुत बुरा है- कडुआ है" और मैं कहूँ :-- "यदि ऐसा है तो कल विहार है , चलो मेरे साथ।" तो कितने लोग त्याग करने को तैयार होंगे? सोचिये।
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