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मुनि-दर्शन अर्थात् इलाचीपुत्र कथा
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नहीं नहीं कह कर लौटते हैं। मुनि के नेत्र नीचे हैं। वे स्त्री के साथ दृष्टि तक नहीं मिलाते । इलाची विचार में पड़ गया। क्या उनकी तप कृश देह ? क्या त्याग? क्या तेज ? क्या प्रभाव ? धन्य धन्य मुनिवर ! कहाँ आप और कहाँ मैं पामर ?
मैंने श्रेष्ठि-कुल में जन्म लिया, नटनी पर मोहित हुआ, लज्जा छोड़ी, मर्यादा छोड़ी और गाँव-गाँव नाचता रहा ।
'धिग् धिग् विपया रे जीव ने, इम नट पाम्यो वैराग ।'
संसार में नये नये खेल किये और अभी तक मैं विषयों की आशा में घूम रहा हूँ। धन्य है इन मुनिवर को ! जो 'लो लो' कहने पर भी लेते नहीं। इस तीव्र पश्चाताप से चार घातीकर्म के पट टूट गये और नटनी को पाने के लिए तत्पर इलाची ने केवलज्ञान प्राप्त किया। ट के बाँस-रस्से सब अदृश्य हो गये और वहाँ देव - रचित सिंहासन बन गया। घड़ी भर पूर्व की खेल-शाला धर्म-स्थानक बन गई और इलाची केवली का उपदेश सुन कर खेल से रंजित होने के लिये आये हुए लोग धर्मरंजित वन कर विभिन्न व्रत ग्रहण करके अपने स्थान को लौट गये।
अभिरूढो सग्गो मुणिपवरं दट्टु केवलं पत्तो ।
जो गिहिबेसधरो बिहु तमिला पुत्तं नम॑सामि ।।
बाँस के अग्रभाग पर चढ़े हुए गृहस्थ वेषधारी इलाची पुत्र को मुनिवर को देखकर केवलज्ञान प्राप्त हुआ, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ ।
साक्षात्
इस प्रकार दूर से हुआ मुनि-दर्शन इलाची पुत्र के लिए भव-तारक बना, तो मुनि-परिचय क्या कल्याण नहीं करेगा ?
( ऋषिमंडलवृत्ति से)