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सचित्र जैन कथासागर भाग - १ नटनी में लालायित हुआ था। राजा चकोर था । वह समझ गया कि नटनी का भरतार यह नट है और यदि यह गिर कर मर जाये तो ही नटनी को अपने अधीन करने में अनुकूलता होगी।
मुर्गे ने 'कूकडू कू' की ध्वनि प्रारम्भ की तो इलाची समझ गया कि सवेरा हो गया। वह नीचे उतरा, राजा को उसने प्रणाम किया और दान के लिए हाथ फैलाया । राजा ने कहा, 'नटराज! प्रातःकाल की वायु की शीतल लहर से मेरी आँख लग गई थी और मैं तुम्हारा खेल देख नहीं सका । पुनः एक बार मुझे अपना खेल बताओ ।' इलाची समझ गया कि - 'मैं धन वंछु राय का, राय वछे मुझ घात।' मैंने घर-बार, माता-पिता सब इस नटनी के लिए छोड़ा और राजा दान दे तो नटनी प्राप्त हो सकती है । यही सोचकर उसने पुनः अपना हृदय दृढ़ किया और खेल प्रारम्भ कर दिया।
सूर्य पूर्व में दृष्टिगोचर हुआ और स्वर्ण की रक्तिम धूप की पतली चादर उसने जगत पर डालनी प्रारम्भ की। बाँस पर खेल करने वाले इलाची ने नये नये खेल प्रारम्भ किये और नट पूर्ण उत्साह से ढोल को ढम-ढम वजाने लगा। इलाची की दृष्टि दूर दूर तक पड़ रही थी।
उसने देखा सेठ के घर के आँगन में मुनिवर गोचरी लेने आये। रूप-लावण्य की अंबार तुल्य युवती लड्डुओं से भरा हुआ थान लाकर मुनि को भिक्षा देने लगी । मुनि
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इलाची ने दूर सुतर देखा - रूप-लावण्य की अंबार युक्ती मुनि को मोदक लेने का आग्रह कर रही है फिर भी मुनि नीची दृष्टि रख मना कर रहे हैं।