________________
सचित्र जैन कथासागर भाग - १ पूर्व ही नमुचि वहाँ से भाग कर हस्तिनापुर आया और सनत्कुमार चक्रवर्ती के पास महामात्य के पद पर आसीन हो गया।
एक बार ये दोनों भाई हाथों में वीणा लेकर नगर के चौक में संगीत का कार्यक्रम करने लगे। उनकी स्वर-लहरी से सम्पूर्ण नगर मुग्ध हो गया और जिस प्रकार बांसुरी की ध्वनि से मृग एकत्रित हो जाते हैं उसी प्रकार नगर के नर-नारी भी घर के कार्य छोड़ कर उनका संगीत सुनने के लिये आने लगे। लोगों के दल के दल उनके पीछे आने लगे। इससे अस्पृश्यता से भयभीत लोगों ने राजा को निवेदन किया कि, 'हे देव! इन दो चाण्डालों ने अपने संगीत से आकर्पित करके सम्पूर्ण नगर को अपवित्र कर दिया है।' इस पर राजा ने उन्हें तुरंत नगर छोड जाने की आज्ञा दी। । एक दिन वाराणसी में कौमुदी महोत्सव था। लोगों के समूह गीत गाते हुए निकले। एक सियार का शब्द सुनकर दूसरा सियार वोल उठता है, उसी प्रकार चित्र एवं संभूति वुर्खा ओढ़ कर नगर में प्रविष्ट हो गये और तीक्ष्ण स्वर में उन्होंने भी अपना गीत प्रारम्भ किया। उनके गीत के समक्ष समस्त गीत फीके प्रतीत हुए । लोगों के समूह उनके समक्ष एकत्रित हो गये, जिससे किसी कौतुक-प्रिय व्यक्ति के मन में यह जानने की इच्छा उत्पन्न हुई कि ये गायक कौन हैं ? उसने उनका वुर्खा खींच लिया। लोगों ने देखा तो दुखें में से चित्र एवं संभूति निकले । क्षणभर पूर्व जिनके गीत पर लोग डोल रहे थे, वे ही लोग 'अरे, ये चाण्डाल हैं, मारो, मारों | इन्होंने सम्पूर्ण नगर को दूषित कर दिया है।' यह कहते हुए जिसके हाथ में जो आया उसे ही लेकर लोग उन्हें पीटने लगे। इस प्रकार पागल कुत्ते की तरह पीटते-पीटते लोग उन्हें नगर के वाहर छोड़ आये।
चित्र एवं संभूति के गात्र लोगों द्वारा पिटाई करने से शिथिल हो गये, उसी प्रकार उनके मन भी शिथिल हो गये। उन्हें प्रतीत हुआ कि लोगों को हमारी कला पसन्द है, परन्तु इस देह में विद्यमान होने से त्याज्य है । लोगों की दृष्टि में हमारी देह घृणापात्र है, तो हम इस देह को क्यों रखें? वह सोच कर छलांग लगाने का निर्णय करके वे एक पर्वत पर चढ़े। इतने में उन्हें एक महामुनि मिला, जिन्होंने बताया कि छलांग लगाने से देह का नाश तो हो जायेगा, परन्तु कर्मों का नाश नहीं होगा। उसके लिए तो तप करके आत्म-कल्याण करो और फिर देह का त्याग करो तो उत्तम है । मुनिवर की यह बात उन्हें उचित प्रतीत हुई और वे साधु हो गये। देह की तनिक भी परवाह किये बिना कठोर तप करके उन्होंने माराक्षमण प्रारम्भ किया और वे दोनों हस्तिनापुर के समीप आ पहुंचे।
एक वार संभूति मुनि मासक्षमण के पारणे के अवसर पर हस्तिनापुर में भिक्षार्थ निकले । नमुचि ने तप से कृश एवं वेप बदला हुआ होने पर भी उन्हें तुरन्त पहचान