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पाप ऋद्धि अर्थात् ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती तो तुम्हें तप में स्थिर होना चाहिये, संसार की पाप-ऋद्धि में नहीं। तुम अपना पूर्व भव सुनो।
(२)
चौथे भव में साधु-वेप की निन्दा करने के फल स्वरूप काशी में भूतदत्त चाण्डाल के घर चित्र एवं संभूति नामक हम दो भाई बने । उस समय वाराणसी नगरी में शंख राजा का शासन था। उसका नमुचि नामक एक महामात्य था, जिसका राजा की पटरानी के साथ प्रेम हो गया और वे गुप्त रूप से परस्पर भोग-विलास में लीन हो गये। जब राजा को इस बात का पता लगा तब उसकी अपकीर्ति न हो उस भय से उसने गुप्त रीति से महामात्य नमुचि का वध करने का कार्य भूतदत्त चाण्डाल को सौंपा | भूतदत्त ने विचार किया कि मेरे पुत्र चतुर हैं, परन्तु चाण्डाल होने के कारण उन्हें कोई शिक्षित नहीं करता | यदि जीवित रहने की अभिलाषा से यह महामात्य उन्हें पढ़ाना स्वीकार करे तो मैं उसे वचा लूँ। यह सोच कर महामात्य नमुचि को उसने अपने मन की बात कही। इस पर उसने उन चाण्डाल पुत्रों को पढ़ाना स्वीकार किया | चाण्डाल ने उसे अपने घर के तलघर में गुप्त रूप से रखा | नमुचि ने चित्र एवं संभूति को अल्प समय में समस्त शास्त्रों के पारगामी बना दिया, परन्तु उसमें जो व्यभिचार करने का दोष था वह नहीं गया। वहां फिर वह चाण्डाल की पत्नी के साथ भी प्रेम में पड़ गया। कुछ समय के पश्चात् चाण्डाल को यह बात ज्ञात हो गई। वह उसका संहार कर उससे
ब्रह्मपदत्त! यह तेरी राज-ऋद्धि ही तुजे भवोभव भटकाने वाली है! सच्ची ऋद्धि तो ज्ञान, दर्शन, चारित्र है!