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________________ पाप ऋद्धि अर्थात् ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती २१ लिया। 'पापाः सर्वत्र शङ्किताः' की भावना से उसके हृदय में अनेक शंका-कुशंकाएँ होने लगी। उसको लगा कि मेरा सम्पूर्ण चरित्र ये दोनों मुनि जानते हैं और कदाचित् वे किसी को वात करें तो मेरी प्रतिष्ठा एवं इज्जत का क्या होगा? उसने सेवकों को तुरन्त आदेश दिया कि इन मुनियों की गर्दन पकड़कर इन्हें बाहर निकाल दो । सेवकों ने दोनों मुनियों की गर्दन पकड़कर तिरस्कार पूर्वक उन्हें वाहर निकाल दिया। ___ "अग्नि से, शीतल जल भी उष्ण हो जाता है", उसी प्रकार संभूति मुनि इस तिरस्कार से उग्र बन गये और उनके मुँह में से ज्चाला उगलने वाली तेजोलेश्या प्रकट हुई। नगरनिवासी भयभीत हो गये । चक्रवर्ती सनत्कुमार भी आकर मुनिवर के चरणों में गिरा और निवेदन करने लगा कि, 'हे क्षमासागर! महामुनि! आप दयालु हैं, दया रख कर क्षमा करें।' इस यात का पता चित्र मुनि को लगा। वे भी वहाँ आये। उन्होंने विविध शास्त्र-वचनों के द्वारा संभूति मुनि को शान्त किया, परन्तु इस क्रोध का कारण देह है - यह सांचकर दोनों मुनि बन्धुओं ने आहार का परित्याग करके अनशन प्रारम्भ किया। एक बार सनत्कुमार चक्रवर्ती की रानी सुनन्दा मुनिवर की वन्दनार्थ आई। वन्दन करते समय उसके वालों की लट का संभूति मुनि के चरण से स्पर्श हो गया । तप से कृश मुनि के हृदय में क्षोभ हुआ और उन्होंने संकल्प किया कि इस तप के फल स्वरूप , - - C hini होरक्यामरा तिरस्कार में उग्र बने संभूति मुनि के मुख से तेजोलेश्या प्रगट हुई। राजा एवं नगरवासी क्षमा याचना करते हैं।
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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