________________
१३८
सचित्र जैन कथासागर भाग - १ मरते-मरते मैं उनके नेत्रों को शीतलता प्रदान नहीं कर सका । माता! धैर्य रख, मैं अभी वृद्ध नहीं हुआ। मैं परिश्रम करूँगा और विद्वान वन कर तुझे प्रसन्न करूँगा ! माता, वता मैं किसके पास शिक्षा ग्रहण करने जाऊँ?'
यशा ने कहा, 'पुत्र! कौशाम्बी में विद्वान तो अनेक हैं परन्तु पद से उतरा हुआ अधिकारी कौड़ी का होता है, उस प्रकार तेरे पिता नहीं है अत: अव किसको तेरी लज्जा रुकावट करती है? तू पुरोहित का पुत्र है अतः शिक्षित करने में अन्य लोग हिचकिचायेंगे, क्योंकि सबको नये पुरोहित से भय लगता है। उनके मन में ऐसा होगा कि कहीं नये पुरोहित को बुरा न लगे।'
'माता! कौशाम्बी के अतिरिक्त क्या अन्यत्र श्रेष्ठ विद्वान् नहीं है?' कपिल ने अव तत्परता बताते हुए कहा। __ 'श्रावस्ती में तेरे पिता के परम मित्र इन्द्रदत्त महान विद्वान हैं। यदि वहाँ तु चला जाये तो वे पुत्रवत तुझे सम्हालेंगे और अच्छी तरह शिक्षित करेंगे; परन्तु मेरा मन तुझे वाहर भेजने में हिचकिचाता है' - यशा ने मार्ग बताते हुए कहा।
'माता! मैं श्रावस्ती जाऊँगा और मन लगा कर शिक्षा ग्रहण करके विद्वान बनूंगा तथा तेरे मन को शीतलता प्रदान करूँगा।'
शुभ दिन, शुभ शकुन देखकर माता द्वारा बना कर दिया हुआ भोजन लेकर, माता के चरण स्पर्श करके कपिल ने कौशाम्बी से प्रस्थान किया और धीरे धीरे वह श्रावस्ती पहुंचा।
श्रावस्ती नगरी में पन्द्रह वर्ष का किशोर कपिल ऊँचे-ऊँचे भवनों को देखता हुआ आगे बढ़ रहा है और जो मिलता है उससे इन्द्रदत्त विद्वान का नाम पूछता जाता है। चौराहा पार करके आगे जाने पर एक चौक में बहुत से विद्यार्थियों के एक समूह द्वारा घिरे हुए एक अधेड उम्र के नंगे बदन तेजस्वी ब्राह्मण को उसने देखा और उनके मध्य जाकर उसने पूछा, 'यहाँ इन्द्रदत्त महाविद्वान् कहाँ रहते हैं?'
तेजस्वी ब्राह्मण ने चेहरा ऊपर उठाया और उस युवक की ओर देखा तो मित्र काश्यप की ही मानो प्रति कृति हो वैसा यह युवक प्रतीत हुआ । वे बोले, 'बोलो, इन्द्रदत्त से क्या कार्य है? मैं ही हूँ इन्द्रदत्त ।'
कपिल ने तुरन्त अभिवादन करके उनके चरण स्पर्श किये और कहा, 'माता यशा ने मुझे आप के पास अध्ययन करने के लिए भेजा है। मेरा नाम कपिल है और मैं कौशाम्बी के राजपुरोहित काश्यप का पुत्र हूँ ।' विद्यार्थियों का अध्ययन पूर्ण होने के पश्चात् इन्द्रदत्त उसे अपने साथ घर ले गये।