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जहाँ लाभ वहाँ लोभ अर्थात् कपिल केवली की कथा
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उसे स्नान कराया, भोजन कराया और आदर पूर्वक उसे अपने निवास पर रखा ।
दो-चार दिन व्यतीत होने पर इन्द्रदत्त संकोच में पड़ गये। मित्र के पुत्र को इन्कार भी नहीं किया जा सकता और नित्य अपने घर भोजन भी नहीं करवाया जा सकता है । अतः क्या किया जाये ? विचार करते-करते उन्हें पड़ौसी शालिभद्र का घर याद
आया ।
(४)
अवकाश का दिन था । उपाध्याय इन्द्रदत्त और कपिल दोनों घर से निकले। एक मानो गजराज था और दूसरा मानो यौवन में प्रविष्ट होता गज- शावक । शालिभद्र के घर जाकर इन्द्रदत्त ने 'ॐ भूर्भुवः स्वः' का मन्त्रोच्चार प्रारम्भ किया ।
शालिभद्र ने दोनों का स्वागत किया और महाविद्वान इन्द्रदत्त से आगमन का कारण पूछा । इन्द्रदत्त ने कहा, 'श्रेष्ठिवर्य ! कार्य तो अन्य कोई नहीं है, परन्तु यह साथ में आया हुआ युवक मेरे मित्र का पुत्र हैं। इसे अध्ययन करना है। ब्राह्मण-पुत्र भिक्षा माँग कर अध्ययन कर सकता है, परन्तु इसकी आयु बड़ी हो गई है और अध्ययन वहुत करना है । अतः किसी उत्तम धनाढ्य के घर भोजन करने की सुविधा हो जाये तो सुख से अध्ययन कर सकेगा। शिक्षा प्राप्त करने वाले को आश्रय देने का महा फल है ।'
एक चौक में बहुत से विद्यार्थीयों के एक समूह द्वारा घिरे हुए एक अधेड़ उम्र के नंगे बदन तेजस्वी ब्राह्मण को कपिल ने देखा.