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जहाँ लाभ वहाँ लोभ अर्थात् कपिल केवली की कथा
कपिल कौशाम्बी के राजा जितशत्रु के पुरोहित काश्यप का पुत्र था। उसकी माता का नाम यशा था । माता-पिता के इस इकलौते पुत्र का जन्म बड़ी उम्र में हुआ था । राजपुरोहित काश्यप ने उसे शिक्षित करने के अनेक प्रयत्न किये, पर वह शिक्षा ग्रहण नहीं कर सका। अतः उसे अपने भाग्य पर छोड़ कर काश्यप ने मन मोड़ लिया।
कपिल के बड़े होने से पूर्व ही काश्यप का देहान्त हो गया । राजा जितशत्रु ने कपिल की ओर दृष्टि डाली परन्तु उसकी आयु छोटी थी और आयु के प्रमाण में बुद्धि भी अल्प ही थी। अतः राजा ने किसी अन्य महा विद्वान को राज-पुरोहित के पद पर नियुक्त किया।
'माता! तू क्यों रो रही है? तुझे क्या कष्ट हो रहा है? क्या तेरे सिर में वेदना हो रही है ? क्या तेरा किसी ने अपमान किया है ?' सिसक-सिसक कर रोती यशा को चौदह वर्ष का कपिल पूछने लगा।
यशा ने कहा, 'पुत्र! न तो मेरे सिर में वेदना हो रही है, न किसी ने मेरा अपमान किया है। मैं तो तेरा रंग-ढंग देखकर रो रही हूँ। तेरे पिता जब राजपुरोहित थे तव वे अश्व पर वैठते थे, जरी का दुपट्टा डालते थे और लोग 'खम्मा खम्मा' करते थे। राजा तथा प्रजा दोनों का उनके प्रति इतना सम्मान था कि कुछ न पूछो बात । वे गये और सव गया। राजा ने तेरे लिए पूछ-ताछ की परन्तु तू कुछ पढ़ा नहीं और पढ़ने योग्य प्रतीत नहीं हुआ। अतः उन्होंने नये पुरोहित को नियुक्त किया। वे नये पुरोहित नित्य अपने घर के सामने से निकलते हैं। आज मैंने जब उन्हें जाते हुए देखा तो मुझे तेरे पिता की ऋद्धि एवं सम्मान का स्मरण हुआ और इस ओर तेरी वाल-चेष्टा एवं तेरे अज्ञान को विचार कर मेरा मन दुःखी हो गया । पुत्र! तू पढ़ा होता तो राजपुरोहित न बन जाता? ब्राह्मण का पुत्र शिक्षा ग्रहण न करे तो फिर उसकी पूजा कैसे होगी? उसके समस्त कार्य शिक्षित हुए विना थोड़े ही आगे आते हैं?' ।
कपिल की आँखें भर आईं, उसके हृदय में पश्चाताप हुआ और वह बोला, 'माता! पुत्र होते हुए भी तू निपूती सी हो गई, सत्य है न? पिता के जीवित रहते मैं नहीं समझा,