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पिता-पुत्र अर्थात् किर्तिधर एवं सुकोशल मुनि
१२३ इस राज्य और राजा के साथ तेरा क्या लेन-देन है?'
इधर सुकांशल ने धाय-माता को विलख-बिलख कर रोते देखा तो उसने उससे रोने का कारण पूछा, 'माता! क्यों रोती हो?'
'क्या बताऊँ पुत्र? तेरे पिता कीर्तिधर राजा मासक्षमण के पारणे के दिन नगरी में प्रविष्ट हुए तो तेरी माता ने धक्के मार कर सेवकों द्वारा उन्हें नगर से बाहर निकलवा दिया। संयमी आत्मा के प्रति ममत्व-भाव तो गया परन्तु हमारी मानवता भी समाप्त हो गई।
राजर्पि के दर्शनार्थ राजा-प्रजा उमड़नी चाहिये, उसके वजाय क्या उन्हें हम धक्के मार कर बाहर निकाले ?' 'माता! ऐसा कैसे हुआ होगा?' 'पुत्र! सहदवी ने अपनी इस शंका के वशीभूत होकर ऐसा किया कि कही तू उनके सम्पर्क में आकर त्यागी न बन जाये। मोह मनुष्य में विवेक नहीं आने देता।'
लघुकर्मी सुकोशल ने राजर्पि की वन्दना के लिए नगर से बाहर जाने की सूचना देने के लिए डुग्गी पिटवाई । वह तथा सम्पूर्ण नगर राजर्पि को वन्दन करने के लिए चल पडा । लज्जित वनी राजमाता सहदेवी भी वन्दन हेतु चली : मुनिवर ने वैराग्यमा देशना दी।
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कीर्तिधर मुनि ने मन को समझाया, 'जीव! क्रोध मत करना! इस राज्य अथवा राजा के साथ तेरे क्या लेने-देने है?'