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सचित्र जैन कथासागर भाग - १ देशना के पश्चात् सुकोशल ने कहा, 'हे भगवन! आपके दर्शन से मेरा जन्म सफल हुआ है। आप मेरे पिता हैं, मैं आपका पुत्र हूँ। आपको संयम में अपना हित प्रतीत हुआ तो क्या मेरा हित संयम में नहीं है? हे पिता! मुझे संयम रूपी अमृत का पान करायें।
सुकोशल पुनः माता की ओर मुड़ा और बोला, 'माता! मैं तेरा प्रिय पुत्र हूँ। तु मुझे संयम ग्रहण करने की अनुमति प्रदान कर । पुत्र का हित और सुख माता चाहती है। अन्त में माता का और सबका हित संयम में है।'
पत्नी को सम्बोधित करके सुकोशल ने कहा, 'हे प्रिये! तु मेरे लिए बिम्न रूप मत वनना । राज्य को सम्हालने वाला तेरे पुत्र होगा, क्योंकि इस समय तू गर्भवती है।'
सुकोशल ने मोह-निद्रा त्यागकर-मोह-वंधन तोड़कर अनुमति प्राप्त की और संयम अङ्गीकार किया। तत्पश्चात् पिता और पुत्र दोनों ने वहां से विहार किया।
सुकोशल ने कनकावली आदि अनेक तप करके देह मुखा दी और पिता-पुत्र दोनों मौदगिल्य पर्वत के समीप कायोत्सर्ग में रहे ।
सहदेवी पुत्र-विहीन बनी, लोगों द्वारा निन्दित बनी और थोड़ा समय व्यतीत करके अन्त में मर कर वाघिन बनी ।
(६)
एक बार यह बाघिन घूमती-फिरती मौदगिल्य पर्वत की खाई में से भूखी प्यासी निकली तो सामने ही उसने इन दोनों मुनियों को देखा । दराते ही उसका शरीर क्रोध से जलने लगा।
कीर्तिधर एवं सुकोशल मुनि ने बाघिन को देखा तो सुकोशल तुरन्त उसके मार्ग में आकर खड़ा हो गया। कीर्त्तिधर ने बालमुनि सुकोशल को समझाया कि परिपह के लिए तत्पर होना सरल है परन्तु सहन करना कठिन है । वे समझा ही रहे थे कि वाघिन ने सुकोशल को पंजा मारा और उसकी देह क्षत-विक्षत कर डाली।
सुकोशल! कर्म क्षय करने का वास्तविक समय यही है । धैर्य रखना, क्रोध पर नियन्त्रण रखना, पूर्ण सौभाग्य से त्यागी मुनियों पर कठोर उपसर्ग होते हैं और उसमें वे अपना कल्याण करते हैं।
सुकोशल ने सोचा, नरक एवं निगोद में इसकी अपेक्षा अत्यन्त कठोर कप्ट मैंने अनेक वार सहन किये हैं, परन्तु वे मैंने संयम-भावना से नहीं सहे थे, जिसके कारण कल्याण नहीं हुआ। उसने न तो वाघिन पर क्रोध किया और न अविचारों पर क्रोध किया। इस ओर उसका देह-पिंजर क्षत-विक्षत हो गया और दूसरी और उसके कर्मों का क्षय हो गया । वह केवलज्ञान प्राप्त करके तत्काल मोक्ष में गया ।