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सचित्र जैन कथासागर भाग
पथ पर प्रयाण कर जायेंगे। इस कारण पुत्र जन्म की बात गुप्त रखी, परन्तु यह बात गुप्त कैसे रह सकती थी? पन्द्रह दिनों में बात सर्वत्र फैल गई और राजा को ज्ञात हो गया कि मेरा भार उतारने वाला पुत्र उत्पन्न हो गया है।
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राजा ने पन्द्रह दिनों के पुत्र को राज्य सभा में उपस्थित किया। उसका नाम सुकोशल रखा गया और राजा ने मंत्रियों तथा प्रजाजनों के समक्ष कहा कि, 'आपको राज्य के लिए अधिकारी की अभिलापा थी वह पूर्ण हो गयी है। अब मैं संयम अङ्गीकार कर रहा हूँ ।' सवने हिचकिचाते हुए दुःखी मन से अनुमति प्रदान की और राजा कीर्त्तिधरमुनि कीर्त्तिधर बन गये ।
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प्रजाजन एवं मंत्रीगण बालराजा सुकोशल का कीर्त्तिधर राजा की तरह ही सम्मान करते और उसका रत्न की तरह पोपण करते थे। राजमाता सहदेवी पुत्र की वृद्धि एवं प्रजाजनों का स्नेह देखकर हर्पित होती, फिर भी उसके हृदय में एक बात की टीम तो बनी ही रहती कि पति का कुल युवावस्था में राज्य छोड़कर संयम पथ पर अग्रसर होने वाला है और यह मेरा पुत्र वास्तविक राजा बन कर दिग्विजयी बने उससे पूर्व कहीं संयम पथ पर न बढ़ जाये। अतः उसने नगर में आने वाले त्यागियों को रुकवा दिया और जो नगर में थे उन्हें दूर भेज दिया, क्योंकि कहीं किसी त्यागी को देखकर पुत्र के मन में भी त्याग के संस्कार जाग्रत न हो जायें । सदा दर्शन एवं श्रद्धा से ही जिज्ञासा प्रकट होती है।
सुकोशल कुमार युवा हुआ। माता सहदेवी ने सुन्दर राजकुमारियों के साथ उसका विवाह किया और पुत्र के सुख से सुखी होकर सहदेवी भी सुखपूर्वक अपना समय व्यतीत करने लगी ।
कीर्तिधर मुनि गाँव-गाँव बिहार करते हुए साकेतपुर आये । वृद्ध द्वारपाल ने राजर्पि को पहचान लिया अतः उन्हें नगर में प्रविष्ट होने से उन्हें नहीं रोका। मुनि नित्य गोचरी के समय नगर में आते और भिक्षा लेकर पुनः नगर के बाहर चले जाते ।
एक वार सहदेवी और सुकोशल की धाय- माता दोनों महल के झरोखे में बैठी थीं । सहदेवी ने मध्याह्न की गोचरी के लिए निकले कीर्त्तिधर को दूर से देखा । उन्हें देखते ही उसका मस्तक झुका परन्तु साथ ही साथ मोह ने उछाला मारा और वह सोचने लगी कि यदि सुकोशल इन महर्षि से मिलेगा तो राज्य छोड कर संयम ग्रहण कर लेगा और पतिविहीन बनी मैं पुत्रविहीन भी हो जाऊँगी और राज्य राजाविहीन हो जायेगा ।
उसने तुरन्त सेवकों को बुला कर उन मुनि को धक्के मार कर नगर से बाहर निकलवा दिया । समता- सागर कीर्त्तिधर मुनि ने हृदय को समझाया कि, 'जीव ! क्रोध मत करना ।