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गृहस्थ होते हुए भी ब्रह्मचारी एवं आहार करते हुए भी उपवासी अर्थात् सूर एवं सोम का वृत्तान्त ५७ से लगा कर आज तक उपवासी रहे हों तो मुझे मार्ग दो ।' रानी यह ध्यान कर रही थी कि नदी का प्रवाह बदला और देखते ही देखते सामने के तट का मार्ग छिछला हो गया। रानी घर पर आई परन्तु उसे कुछ भी समझ में नहीं आया कि यह हुआ कैसे? मैंने स्वयं तो मुनि को भिक्षा प्रदान की है। मुनि नित्य भिक्षा लाते हैं और भोजन करते हैं, फिर उपवासी कैसे ? और यदि उपवासी न हों तो नदी माता उस वचन को मान्य करके मार्ग कैसे दे ?
रानी रात्रि में भी यही सोचती रही। इतने में राजा आये। उन्होंने पूछा, 'देवी क्या विचार कर रही हो?"
रानी ने कहा, 'प्राणनाथ! मुनि नित्य भोजन करते हैं फिर भी मैं बोली कि दीक्षा के पश्चात् मुनि उपवासी रहे हों तो नदी माता! मार्ग दो।' मुझे मार्ग मिला और मैं आ गई। इसका कारण क्या ?"
'देवी! तू समझती ही नहीं कि उनका त्याग कैसा अपूर्व है ? उनकी निराशंसता कैसी अनुपम है ? देह के प्रति उन्हें ममत्व ही कहाँ है ? वे देह को धारण करते हैं, उसका पोषण करते हैं, वह भी पर के कल्याण के लिए। उन्हें चाहे जैसा आहार प्रदान करो, यदि मधुर हो तो उसके प्रति आदर नहीं है और नीरस हो तो उसके प्रति अभाव नहीं है। मुनि तो 'मोक्षे भवे च सर्वत्र'... समान हैं। फिर तो वे उपवासी ही गिने जायेंगे
न?"
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राजा का मन भोग भोगते हुए भी, भोगों से विरक्त है, अतः जलकमलवत् निर्लेप जीवन होने से नदी ने मार्ग दिया!