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________________ सचित्र जैन कथासागर भाग - २ रानी सोचने लगी, 'अहो! भाईयों की ऐसी जोड़ी को धन्य है। एक राजा बन कर राज्य का पालन करते हैं फिर भी निरीह मुनि के समान हैं। दूसरे खाते हैं फिर भी सदा के उपवासी हैं। कैसा उनका मन और कैसी उनकी अटलता! मन ही पाप-वन्धन का कारण है और उस मन का इन दोनों भाइयों ने कैसा निग्रह किया है? उत्तरदायित्व पूर्वक राजा को राज्य का पालन करना पड़ता है अतः पालन करते हैं और गृहस्थी निभानी पड़ती है, अतः निभाते हैं। यह सब करने पर भी मन को स्थिर रखना क्या कम दुष्कर है? जिस मार्ग में उनका मन है उसमें मैं क्यों न सहायक बनूँ? उनका मन सचमुच दीक्षा में है तो वे भी दीक्षा ग्रहण करें और मैं भी दीक्षा ग्रहण करूँ।' __दूसरे दिन राजा-रानी दोनों ने दीक्षा ग्रहण की। अनासक्त मन वाले सूर एवं सोम मुनि कालान्तर में मोक्ष गये, परन्तु जगत् में आज भी गृहस्थी में रहे तो भी सच्चे ब्रह्मचारी और नित्य भोजन करने पर भी उपवासी बन कर वे जगत् के समक्ष अपने नाम का आदर्श प्रस्तुत कर गये। स्नातं मनो यस्य विवेकनीरैः स्यात्तस्य गेहे वसतोऽपि धर्मः यत्सूरसोमो व्रतभृद्गृहस्थौ मुक्तिं गतौ द्वावपि च क्रमेण ।12।। जिनका मन विवेक रूपी जल से नहाया हुआ है उनका घर में रहना भी धर्म है। सूर एवं सोम इसी निर्मल मन से क्रममा मोक्ष में गये हैं। (प्रस्तावशतक से)
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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