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________________ आरसा भवन में केवलज्ञान अर्थात् चक्रवर्ती भरत ३५ मत कर । ये उत्तम मुनिपुङ्गव वमन किये हुए भोग रूप राज्य को कैसे ग्रहण करेंगे ? भरत तुरन्त पाँच सौ वैल - गाडियों में आहार आदि सामग्री लाकर मुनियों को प्रदान करने लगे तब भगवान ने कहा, 'भरत! मुनियों के लिए आधा कर्मी अर्थात् उनके लिए बनाया गया आहार कल्प्य नहीं होगा ।' भरत ने भगवान को अपने वहाँ, उनके लिए नहीं तैयार किया गया, आहार ग्रहण करके कृतार्थ करने की याचना की । भगवान ने कहा, 'भरत! मुनि राज- पिण्ड ग्रहण नहीं करते । ' सब ओर से निराश हुए भरतेश्वर के हृदय में शोक-सागर उमड़ पड़ा और वे मूर्च्छित हो गये । उन्हें लगा कि जो मेरी राज्य ऋद्धि का अंश भी इन त्यागी मुनि बन्धुओं के उपयोग में न आये इस प्रकार की राज्य - ऋद्धि वाला मैं राजेश्वर चक्रवर्ती होते हुए भी किसी का भी उपकारी नहीं बनने वाला सचमुच निष्क्रिय निर्धन हूँ ।' इन्द्र ने भरत का दुःख अल्प करने के लिए भगवान को पूछा, 'भगवान, अवग्रह कितने हैं ?' भगवान ने कहा- ' ( १ ) इन्द्र सम्बन्धी, (२) चक्रवर्ती सम्बन्धी, (३) राजा सम्बन्धी (४) गृहस्थ सम्बन्धी और ( ५ ) साधु सम्बन्धी । ये पाँच अवग्रह हैं । उसमें भी इन्द्र की अनुपस्थिति में चक्रवर्ती की अनुज्ञा और चक्रवर्ती की अनुपस्थिति में राजा की अनुज्ञा इस प्रकार क्रम पूर्वक अनुज्ञा से साधु विचरण कर सकते हैं । इन्द्र ने खड़े होकर बताया कि, 'मेरे अवग्रह में जो मुनि विचरते हैं उन्हें मेरे क्षेत्र में विचरने की मैंने अनुज्ञा प्रदान की है ।' तत्पश्चात् भरत ने भी खड़े होकर कहा कि, 'मेरे अवग्रह की मैं भी अनुमति प्रदान करता हूँ ।' तत्पश्चात् चक्रवर्ती भरत ने इन्द्र को पूछा कि 'इस भोजन सामग्री का क्या करें ?' इन्द्र ने बताया कि 'यह गुणाधिक श्रावकों को प्रदान कर दो।' चक्रवर्ती भरत ने यह यात मान कर श्रावकों को भोजन कराया। — (९) एक वार चक्रवर्ती भरत ने इन्द्र को पूछा, 'आपका मूल रूप देवलोक में भी ऐसा ही रहता है अथवा परिवर्तित होता है ?' इन्द्र ने भरत को अपनी कनिष्ठा अंगुली मूल रूप में बताई । उसे देखते ही भरत के नेत्र चकाचौंध हो गये। सूर्य की सहस्त्र किरणें संगठित होकर मानो वह बनी हो ऐसा भरत को प्रतीत हुआ। तत्पश्चात् इन्द्र भगवान को नमस्कार करके स्व-स्थान पर चला गया और भरत ने अयोध्या में इन्द्र की अंगुली के स्मरणार्थ इन्द्र की अंगुली का आरोप करके महोत्सव किया। तत्पश्चात् लोगों में इन्द्र-स्तम्भ रोप कर इन्द्र- महोत्सव करने की प्रवृत्ति प्रारम्भ हुई।
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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