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सचित्र जैन कथासागर भाग - २
(१०) भरत चक्रवर्ती ने देखा कि राज-पिण्ड होने से मेरे वहाँ मुनि आहार ग्रहण नहीं कर सकते, तो मुझे कुछ न कुछ अपना कल्याण करना चाहिये। अतः उन्होंने श्रावकों को बुला कर कहा, 'आप मेरे रसोई घर में नित्य भोजन करना, आरंभ-सभारंभ का त्याग करके स्वाध्याय करना और मुझे जाग्रत रखने के लिए, 'जितो भवान भयं भरि, ततो मा हन मा हन' (आप विजित हैं, भय की वृद्धि हो रही है, अतः किसी जीव अथवा अपने आत्म-गुण का हनन मत करो और सचेत रहो) ये शब्द कहना । वे श्रावक सदा ये शब्द कहते रहते है जिन्हें सुनकर भरत के हृदय में क्षणभर के लिए मैं कषायों द्वारा जीत लिया गया हूँ, मृत्यु और संसार का भय सिर पर है' आदि विचार आते और शान्त हो जाते।
कुछ समय में तो रसोईघर में भोजन करने वालों की संख्या में अत्यन्त वृद्धि हो गई। अतः सच्चे की परीक्षा करके उन्हें पहचानने के लिए काकिणी-रत्न से तीन रेखाएँ करके श्रावक को पृथक किया और उनके स्वाध्याय के लिए अरिहन्त की स्तुति और श्रावक और साधु-धर्म के आचारों से अवगत कराने वाले चार वेदों की रचना की। 'मा हन मा हन' कहने वाले ये श्रावक कुछ समय के पश्चात 'माहना' के नाम से विख्यात हुए और कुछ समय पश्चात् उनमें से कुछ ब्राह्मण हुए। भरत चक्रवर्ती के पश्चात उनके पुत्र आदित्ययशा के पास काकिणी-रत्न होने से इन माहनों के स्वर्ण की जनेऊ की गई, तत्पश्चात् चाँदी की और आजकल सूत की हो गई है। 'जितो भवान्...' कहने की प्रवृत्ति चक्रवर्ती भरत के पश्चात् उनकी आठ पीढ़ियों तक चली और नवें-दसवें तीर्थंकरों के अन्तर में साधु धर्म का विच्छेद हुआ तब जिनेश्वर भगवान की स्तुति और साधु तथा श्रावक धर्म के आचार रूप भरत चक्रवर्ती के द्वारा रचित वेदों में भी परिवर्तन किया गया और उनके स्थान पर नवीन वेद वने।
(११)
मोक्ष का समय निकट आने पर ऋषभदेव भगवान दस हजार मुनियों के साथ अष्टापद पर्वत पर गये जहाँ उनके साथ भगवान अनशन करके पोष कृष्णा त्रयोदशी (मेरु त्रयोदशी) के दिन अभिजित नक्षत्र में निर्वाण को प्राप्त हुए।
देवों ने महोत्सव पूर्वक भगवान की देह का अग्नि-संस्कार किया और इन्द्र आदि उनके अवशेषों को परम पवित्र मान कर देवलोक में ले गये । भरत चक्रवर्ती ने अग्निसंस्कार भूमि के निकट सिंहनिषद्या नामक प्रासाद का निर्माण कराया और उसमें चौवीस तीर्थंकर भगवानों की उनके देह के प्रमाण वाली रत्नमय प्रतिमाओं के साथ नित्राणवे