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सचित्र जैन कथासागर भाग - २ यहाँ पर हर्षातिरेक से मरीचि ने निकाचित नीच गोत्र कर्म का बंध किया।
(८) विश्व-धरातल को पावन करते हुए एक वार चौतीस अतिशयों के धारक भगवान ऋषभदेव का अष्टापद पर्वत पर पदार्पण हुआ । पर्वत के रक्षकों ने यह समाचार चक्रवर्ती भरत को दिया। ऐसी श्रेष्ठ बधाई देने के बदले चक्रवर्ती ने उन्हें साढ़े बारह करोड स्वर्ण-मुद्राएँ पुरस्कार स्वरूप दीं। तत्पश्चात वे सपरिवार अष्टापद पर्वत पर गये और वहाँ भगवान की प्रदक्षिणा करके उनको वन्दन किया और उनकी देशना श्रवण की। अपने महाव्रतधारी भाइयों को देखकर भरत के मन में भ्रातृ-प्रेम उमड़ पड़ा। अपनी चक्रवर्ती की ऋद्धि एवं हजारों यक्षों एवं सेवकों के होते हुए भी भाइयों के बिना वह जंगल में खड़े ह्ठ के समान प्रतीत हुआ, 'मैं बड़ा होते हुए भी छोटा हूँ और आयु में लघु होते हुए भी हृदय के उदार भाव से ये सचमुच बड़े हैं। मैं चक्रवर्ती के सुखों का उपभोग कर रहा हूँ और ये मेरे भाई दुष्कर तपस्या कर रहें हैं। जिसने अपने भाइ भी अपने नहीं गिने उसके लिए जगत् में अन्य कौन अपना होगा? ये विचार उत्पन्न हुए।
भरतेश्वर भगवान के पास गये और अपने भाइयों को राज्य-ऋद्धि लौटाने का कहकर घर ले जाने की विनती की। भगवान ने कहा, 'भद्र भरत! देह एवं मन की भी परवाह
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भरत ने मरीचि से कह - 'मैं तुम्हारे भगवे वेष को बंदन नहीं कर रहा हूँ मगर,
तुम अंतिम तीर्थकर बनोगे इसलिए वंदन कर रहा हूँ.