SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आरीसा भवन में केवलज्ञान अर्थात् चक्रवर्ती भरत प्रदर्शित करते हुए कहा। तत्पश्चात् सुन्दरी दीक्षित हो गई और भरतेश्वर के अठाणवे भाई, वाहुवली एवं अन्य अनेक पुत्र भी दीक्षित हो गये। (७) भगयान ने बताया, 'भरत! तेरा पुत्र मरीचि इस चौवीसी में 'महावीर' के नाम से चौवीसवाँ तीर्थंकर बनेगा। महाविदेह क्षेत्र में प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती होगा और इस अवसर्पिणी में त्रिपृष्ठ नामक प्रथम वासुदेव भी होगा।' भरत चक्रवर्ती भगवान की यह वाणी सुनकर सोचने लगा, 'क्या कर्म का प्रभाव है? मेरे भाइयों, बन्धुओं एवं अनेक पुत्रों ने दीक्षा ग्रहण की परन्तु कोई उस दीक्षा का विरोधी नहीं है, और इस मरीचि ने दीक्षित होने वालों का देवों के द्वारा होता पूजासम्मान देखकर भगवान के पास दीक्षा ग्रहण की परन्तु वह सर्दी-गर्मी के उपसर्ग सहन नहीं कर सका। अतः उसने कोई भित्र वेष ही धारण किया है । वह भगवे वस्त्र पहनता है, पाँवों में खड़ाऊ रखता है, पात्र न रख कर कमण्डल रखता है और सिर पर भी छत्र रखता है। अभी तक इतना ठीक है कि उसमें उपदेश देने की सुन्दर छटा होते हुए भी वह लोगों को उपदेश सच्चा देता है और अपने भगवे वेष में अन्य किसी को सम्मिलित नहीं करता। फिर भी वह वास्तव में पुण्यशाली है, क्योंकि वह चौबीसवाँ तीर्थंकर बनेगा। मेरे लिए तो वह सचमुच वन्दनीय है।' भरत चक्रवर्ती मरीचि के पास गये और तीन प्रदक्षिणा देकर वन्दन करके बोले, 'भाग्यशाली! तुम सचमुच पुण्यशाली हो । भगवान. ने बताया है कि मरीचि अन्तिम तीर्थंकर बनेगा, महाविदेह क्षेत्र में चक्रवर्ती बनेगा और इस भरतक्षेत्र में प्रथम वासुदेव बनेगा । मैं तुम्हारे भगवे वेष को वन्दन नहीं करता, परन्तु तुम अन्तिम तीर्थकर बनोगे इस कारण तुम सचमुच भाग्यशाली हो, इसलिए वन्दन करता हूँ।' भरतेश्वर तो चले गये परन्तु मरीचि के हर्ष का पार न रहा । द्वेष पर विजयी होना सरल है परन्तु राग पर विजयी होना अत्यन्त कठिन है। अतः मोक्ष की सीढ़ी चढ़ते समय क्रोध एवं मान तो पहले नष्ट हो जाते हैं परन्तु राग रूपी माया और लोभ तत्पश्चात् ही जाते हैं। __मरीचि हर्ष से नाचने लगा और बोला, 'मेरे दादा प्रथम तीर्थंकर, मेरे पिता चक्रवर्ती, मैं प्रथम वासुदेव और अन्तिम तीर्थंकर! क्या हमारा कुल! अहा! इक्ष्वांकु कुल में तेईस तीर्थंकर वनेंगे। विश्व में हमारे परिवार के समान उच्च परिवार एक भी नहीं है।'
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy